पार्टियों को नि:शुल्क रेवड़ियां बांटना बंद करना चाहिए

Edited By ,Updated: 10 Aug, 2022 05:59 AM

parties should stop distributing free ravadis

मुफ्त उपहारों या यूं कहें रेवड़ी की बरसात हो रही है जिसमें राजनीतिक खेल के समक्ष आर्थिक सूझबूझ नतमस्तक हो जाती है। राजनीतिक दलों द्वारा खुले रूप से विवेकहीन सबसिडी बांटी जा रही है

मुफ्त उपहारों या यूं कहें रेवड़ी की बरसात हो रही है जिसमें राजनीतिक खेल के समक्ष आर्थिक सूझबूझ नतमस्तक हो जाती है। राजनीतिक दलों द्वारा खुले रूप से विवेकहीन सबसिडी बांटी जा रही है और यह इस आशा के साथ किया जा रहा है कि नीतियों और सतत कार्यक्रमों के बजाय लोकप्रिय कदमों से बेहतर चुनावी परिणाम मिलते हैं किंतु परवाह किसे है क्योंकि सरकार का पैसा किसी का पैसा नहीं होता है। 

हमारे राजनेता जिस लोकप्रियतावाद को अपना रहे हैं वह सुखद होता यदि इसके भावी परिणाम नहीं होते। कोई भी इसमें अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने का खतरा नहीं देख पा रहा है और दु:खद तथ्य यह है कि इस राजनीतिक खेल और लोकप्रियतावादी नौटंकी ने उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। वे इस आॢथक तर्क को नकार रहे हैं कि जीवन में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता है। 

हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने मुफ्त रेवड़ी  बांटने की संस्कृति पर रोक लगाने का आह्वान किया। उसके बाद उच्चतम न्यायालय ने सुझाव दिया कि सरकार, नीति आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक समिति का गठन किया जाए जो इस विषय पर विचार करे और अपनी सिफारिशें दें। न्यायालय ने इस वास्तविकता को भी रेखांकित किया कि कोई भी राजनीतिक दल इन मुफ्त रेवडिय़ों को बंद करने की अनुमति नहीं देगा। हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। 

यह तथ्य इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि दिल्ली में नीति आयोग की शासी परिषद की बैठक में 23 मुख्यमंत्रियों, दो उपराज्यपालों, दो प्रशासकों और केंद्रीय मंत्रियों ने भाग लिया किंतु वे इस मुद्दे पर मौन रहे। इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि इन रेवडिय़ों को बांटने के लिए हमारे राजनेताओं को पैसा कहां से मिलता है। स्पष्टत: यह पैसा लोगों पर कर लगाकर मिलता है। क्या हमारी मेहनत से कमाए गए पैसे के कर का उपयोग पार्टियों के चुनावी वोट बैंक को बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए? क्या नेताओं और उनकी पार्टियों को यह पैसा अपनी जेब से या पार्टी के कोष से नहीं देना चाहिए? क्या ऋण माफ किया जाना चाहिए? क्या ये मुफ्त रेवडिय़ां सबसिडी से अलग हैं? क्या वे अच्छे और बुरे हैं? इसका निर्णय कौन करेगा? 

मोदी के कल्याणकारी राज्य के नए मॉडल की तुलना की जानी चाहिए जिसमें दिल्ली और चंडीगढ़ में आप सरकार की नि:शुल्क बिजली और पानी की योजना, राजस्थान, केरल, मध्य प्रदेश आदि में मध्यान्ह भोजन योजना आदि के मुकाबले निजी लाभ के लिए सार्वजनिक प्रावधान शामिल हैं। साथ ही अनेक राज्य विकास के विभिन्न चरणों से गुजर रहे हैं। एक राज्य में लोगों की सहायता के लिए जो आवश्यक हो जरूरी नहीं कि वह दूसरे राज्य में भी आवश्यक हो। 

भारतीय रिजर्व बैंक का मानना है कि 18 बड़े राज्यों की सरकारों द्वारा जो बैलआऊट पैकेज दिया गया है उसकी लागत लगभग 4$3 लाख करोड़ रुपए या उनके सकल घरेलू उत्पाद का 2$3 प्रतिशत है जो केन्द्र सरकार द्वारा शिक्षा, ग्रामीण विकास और स्वास्थ्य पर खर्च किए गए कुल खर्च से अधिक है। केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2019-20 और वर्ष 2021-22 के बीच आंध्र प्रदेश ने 23899 करोड़ रुपए, उत्तर प्रदेश ने 17750 करोड़ रुपए, पंजाब ने 2889 करोड़ रुपए और मध्य प्रदेश ने 2698 करोड़ रुपए अपनी संपत्तियों को गिरवी रखकर ऋण लिया है। 

हैरानी की बात यह है कि पंजाब सरकार का 86 प्रतिशत व्यय वेतन, पैंशन और उधार पर ऋण में चला जाता है। इसका पूंजीगत परिव्यय अर्थात रोड, स्कूल, अस्पताल आदि के निर्माण के लिए केवल 7$5 प्रतिशत है। तमिलनाडु, राजस्थान और मध्य प्रदेश में स्थिति और भी खराब है। मुफ्त रेवडिय़ां कोई नई बात नहीं हैं। सभी का ध्यान आकर्षित करने वाली इस राजनीति की शुरूआत पहली बार 1967 में तमिलनाडु में द्रमुक ने की जब उसने 1 रुपए प्रति किलो की दर पर चावल उपलब्ध कराने की गारंटी दी।

1993 में आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम के एन.टी. रामाराव ने 2 रुपए प्रति कि.ग्रा. की दर पर चावल उपलब्ध कराने का वायदा किया और वे चुनावों में विजयी हुए। उसके बाद 80 के दशक के विनाशक ऋण मेले हुए और फिर कलर टी.वी., पंखे, सिलाई मशीन, वाशिंग मशीन आदि बांटने का दौर शुरू हुआ, चावल की राजनीति पुन: शुरू हुई और यह 1 रुपए प्रति किलो और 3 रुपए प्रति किलो की दर पर उपलब्ध कराए जाते रहे। 

इस मामले में भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में होड़ लगी। पांच लाख सरकारी नौकरियों, गृहणियों के लिए 2 हजार रुपए प्रति माह की आय, बिजली की 200 नि:शुल्क यूनिटें, सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण, बालिकाआें को केजी से लेकर पीजी तक नि:शुल्क शिक्षा के वायदे किए गए। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? स्पष्ट है कि नि:शुल्क रेवड़ी और कल्याणकारी उपायों के बीच अंतर किया जाना चाहिए। कल्याणकारी उपायों में एक वृहद व्यापक ढांचे के अंग में रूप में समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है जबकि नि:शलुक रेवडिय़ां सामाजिक ङ्क्षचताआें से नहीं अपितु वोट बैंक से निर्देशित होती हैं। 

कोई भी सरकार मनमर्जी से लोकप्रिय योजनाओं पर पैसा नहीं फैंक सकती है। दुर्भाग्यवश हमारे नीति निर्माता स्थिति की गंभीरता को नहीं पहचान पाए हैं। वे विकास की ऐसी रणनीति निर्धारित करने में विफल रहे हैं जो हमारे बहुलवाद और बढ़ती आर्थिक विषमता को ध्यान में रखे। सरकार को नि:शुल्क रेवडिय़ां बांटना बंद करना चाहिए। समय आ गया है कि इस संबंध में एक लक्ष्मण रेखा खींची जाए।-पूनम आई. कौशिश     
 

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