जातिवाद बुरा, मगर कोई इसे खत्म नहीं करना चाहता

Edited By Updated: 20 Jan, 2022 06:32 AM

racism is bad but no one wants to end it

इन दिनों अपने यहां चुनाव का दौर-दौरा है। हर दल जीतने की जुगत भिड़ा रहा है। जाति-धर्म को आधार बना कर टिकट दिए जा रहे हैं। ‘जिसकी जितनी सं या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’ के गणित

इन दिनों अपने यहां चुनाव का दौर-दौरा है। हर दल जीतने की जुगत भिड़ा रहा है। जाति-धर्म को आधार बना कर टिकट दिए जा रहे हैं। ‘जिसकी जितनी सं या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’ के गणित का हिसाब राजनीतिक पार्टियां लगा रही हैं। आपने देखा होगा कि चुनाव से पहले ही ओपिनियन पोल शुरू हो जाते हैं।

चैनल्स के लोग, यू-ट्यूबर्स, विभिन्न रेडियो चैनल्स, सोशल मीडिया वाले सब अपने-अपने माइक उठा कर शहर-शहर, गांव-गांव घूमने लगते हैं। लोगों की राय को खूब बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। यह बिल्कुल भुला दिया जाता है कि लोग अक्सर अपने दिल की बात किसी को नहीं बताते। वे वह कहते हैं जो आप अपने पूछे गए सवाल के जवाब में सुनना चाहते हैं। 

ओपिनियन पोल्स अक्सर दलों के पक्ष-विपक्ष में राय बनाने का काम करते नजर आते हैं। इसीलिए जिस दल के पक्ष में बात कही जाती है, वह इसे हाथों-हाथ लेता है, मगर दूसरे दल कहते हैं कि उन्हें इन पर विश्वास नहीं है। वे बार-बार उन वर्षों का उदाहरण देते  हैं जब ऐसे सर्वेक्षण गलत साबित हुए थे। यह देखकर और भी ताज्जुब होता है कि हर आकलन में जाति और धर्म के आंकड़ों का ही बोलबाला रहता है-कहां कितने दलित हैं, कितने पिछड़े हैं, कितने ब्राह्मण हैं, कितने मुसलमान हैं, कितने सिख हैं, कितने ईसाई।  इसी आधार पर टिकट दिए जाते हैं। अक्सर जातियों, धर्मों को एक ‘अ ब्रेला’ की तरह देखा जाता है। 

उदाहरण के लिए, कहां कितने ब्राह्मण हैं, उनके बारे में बताया जाने लगता है कि वे किसे वोट देंगे। इसी तरह दलित, पिछड़े, अन्य जातियां या विभिन्न धर्मावल बी। ये महान विशेषज्ञ भूल जाते हैं कि अपने यहां एक जाति का मतलब एक होना नहीं है। इनमें भी हजारों उपजातियां, कुल, गौत्र और न जाने कौन-कौन से अंतर हैं। एक ही जाति में बहुत बार रोटी-बेटी तक का रिश्ता नहीं होता। सब खुद को एक-दूसरे से श्रेष्ठ मानते हैं। इन्हीं कारणों से ये कभी इकट्ठे नहीं होते। आपसी रंजिशें और झगड़े भी चलते रहते हैं। 

अक्सर आप पाएंगे कि सारे दल, बुद्धिजीवी, समाज की चिंता में दुबले हुए जाते लोग जातिवाद को अपने देश का सबसे बड़ा पाप मानते हैं। वे हरदम इसे खत्म करने का संकल्प लेते रहते हैं। वे धर्मनिरपेक्षता का दावा भी करते रहते हैं, लेकिन जैसे ही चुनाव की बात आती है, जाति-धर्म का गणित सिर चढ़ कर बोलने लगता है। इसीलिए महसूस होता है कि जो जातिवाद को खत्म करने की कसमें खाते हैं, वे इसे कभी खत्म नहीं करना चाहते। बल्कि आजकल तो कई नेता यह भी प्रश्र उठाने लगे हैं कि क्या जाति उन्होंने बनाई है? 

सच तो यह है कि जब तक जाति है, उनके वोटों का हिसाब-किताब है, तब तक कोई भी जाति को खत्म नहीं करना चाहता। इसीलिए ओपिनियन पोल्स का सारा गणित जाति-धर्म के ही इर्दगिर्द घूमता नजर आता है। ये महान विषेषज्ञ समझते हैं कि वोटर अपनी ही जाति के नेता को वोट देता है। किसी हद तक यह सच हो सकता है, मगर सौ फीसदी नहीं। इन सर्वेक्षणों में लोगों के विवेक को बिल्कुल भुला दिया जाता है। सोचने की बात है कि क्या सारे ब्राह्मण ब्राह्मणों को, सभी दलित दलितों को, सारे पिछड़े पिछड़ों को वोट देते हैं?

अगर यह सच होता तो कोई नेता कभी जीत न पाता, क्योंकि एक जाति या एक समूह के आधार पर चुनाव जीते नहीं जा सकते। इसीलिए कई जातियों और धर्मों के समूह बना कर दल अपनी-अपनी जीत को सुनिश्चित करने की कोशिश करते हैं, जिसे इन दिनों सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया जाता है। 

एक समय ऐसा था कि नेता जिस जाति के होते थे, वे उसी के कल्याण की बात करने से परहेज करते थे। उन्हें लगता था कि इससे दूसरी जातियां नाराज हो जाएंगी। मगर अब ऐसा नहीं रहा। अब तो अपराधी भी अगर अपनी जाति का हो, तो नेता उसके पक्ष में बोलते हैं। कई बार लगता है कि वह दिन दूर नहीं, जब आप किसी अपराधी को दंड दे ही नहीं सकेंगे, क्योंकि अपराधी जिस जाति, धर्म का होगा, उससे जुड़े नेता न केवल उसके पक्ष में बोलेंगे, बल्कि उस जाति-धर्म की विशेषताएं बताते हुए कहेंगे कि इस जाति के लोग तो अपराधी हो ही नहीं सकते। हालांकि हम जानते हैं कि अपराधी की कोई जाति या धर्म नहीं होता।-क्षमा शर्मा      

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