देश का भाग्य ग्रामीण क्षेत्रों को मजबूत करने से ही बदल सकता है

Edited By ,Updated: 03 Feb, 2024 05:54 AM

the fate of the country can change only by strengthening rural areas

देश के आजाद होने से लेकर अब तक, जो भी सत्ता में रहे हैं, वे भरमाते रहे हैं कि भारत गांवों का देश है और ग्रामीण क्षेत्रों का विकास प्राथमिकता है। हम इसी भ्रम में जी रहे हैं कि कभी तो यह सच होगा और जो यह कहते रहे हैं, अपनी बात पर खरा उतरेंगे, लेकिन यह...

देश के आजाद होने से लेकर अब तक, जो भी सत्ता में रहे हैं, वे भरमाते रहे हैं कि भारत गांवों का देश है और ग्रामीण क्षेत्रों का विकास प्राथमिकता है। हम इसी भ्रम में जी रहे हैं कि कभी तो यह सच होगा और जो यह कहते रहे हैं, अपनी बात पर खरा उतरेंगे, लेकिन यह मृग मरीचिका ही सिद्ध हुई है। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कितना सही कहा था कि ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं पहुंचाने से ही देश का भाग्य बदल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं था कि शहर न हों बल्कि यह था कि गांव भी शहरों जैसे हों। 

यह बात जानते हुए भी कि देश को 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना हमारे साढ़े 6 लाख गांव पूरा कर सकते हैं क्योंकि 2 तिहाई आबादी इनमें ही रहती है। विडंबना यह है कि डैमोग्राफिक डिविडैंड यानी आबादी का हमारी खुशहाली में योगदान सबसे ज्यादा ग्रामवासियों का होने पर भी वे ही सबसे अधिक बदहाल हैं। जरा सोचिए, शहर में इमारतें बनानी हैं तो गांवों से लेबर आती है, अगर न आए तो काम बंद। कारीगर चाहिएं तो भी वहीं से आते हैं, यहां तक कि घरेलू कर्मचारी और नौकर-चाकर भी। मजा यह कि शहर से लड़के-लड़कियां गांव इसलिए जाते हैं कि बस कुछ घूमना-फिरना, पिकनिक जैसा हो जाए और ऐसे प्राणी देखने को मिल जाएं जिन्हें पास बैठाकर बात करने में अपनी हेठी होती हो। 

सच से सामना : वास्तविकता यह है कि गांव के बिना हमारा गुजारा नहीं और ग्रामवासियों के साथ बैठना गवारा नहीं। ग्राम विकास की स्थिति यह है कि अगर वहां कोई परिवार यह चाहे कि अपने बच्चों को पढ़ाए-लिखाए तो स्कूल अभी भी पुराने से खंडहर जैसे मकान में मिलेगा जिसका ताला खोलने के लिए कोई तब आएगा जब उसे अपने काम से फुर्सत मिलेगी। पढऩे की सुविधाएं इतनी कि अभी भी पेड़ के नीचे या टूटे-फूटे कमरे में तीन टांगों की कुर्सी और ईंट के सहारे रखी मेज मिलेगी। ब्लैकबोर्ड होगा लेकिन उस पर लिखा कैसे जाए, यह अध्यापक को सोचना पड़ता है। 

आदर्श स्कूल के नाम पर कुछ इमारतें हैं लेकिन उनमें झुंड की तरह बच्चों को भर कर पढ़ाने की प्रक्रिया को पूरा किया जाता है। जाहिर है जिसकी मर्जी हो वहां आए और जो न आए उसकी अटैंडैंस या हाजिरी रजिस्टर में खानापूर्ति हो जाती है क्योंकि साल के अंत में आंकड़े दिखाने पड़ते हैं कि कितने विद्यार्थी पढ़कर निकले। अब 8वीं पास को चौथी के प्रश्न भी हल करना न आए तो इससे क्या फर्क पड़ता है क्योंकि नकल करना यहां मौलिक अधिकार की श्रेणी में आता है और कोई इसे रोक नहीं सकता बल्कि कानून भी बन जाता है। देश की जी.डी.पी. में कृषि और उस पर आधारित उद्योगों जैसे पशु पालन, डेयरी और अन्य व्यवसायों का सबसे अधिक योगदान है लेकिन जो लोग इन सब से जुड़े हैं उनका रहन-सहन ऐसा कि अनपढ़-गंवार लगते हैं। गांवों में आशा वर्कर और आंगनबाड़ी कार्यकत्र्ता एक तरह से वहां की रीढ़ है लेकिन उन्हें जो पैसा मिलता है, उसे सुनकर हंसी आए बिना नहीं रहेगी। 

कई दशक पहने जब इसकी शुरूआत हुई थी तब इसके मूल में यह भावना थी कि ऐसे कार्यकत्र्ता तैयार किए जाएं जिनके मन में सेवा भाव हो, बस जरूरत भर का पैसा मिल जाए, उनके लिए काफी है। इनका कोई वेतनमान नहीं, कोई सुविधा नहीं केवल सेवा करनी है। अब लाखों कार्यकत्र्ता हैं जिन्हें आंदोलन करने की जरूरत पड़ती है कि कम से कम इतना तो मिले कि इज्जत की रोटी मिल जाए और ठीक से रह सकें लेकिन यह संभव नहीं। खैर कहां तक ग्रामीण क्षेत्रों का दु:खड़ा कहा जाए, अब इसे बदलने की जरूरत है। अगर समानता और न्याय पर आधारित समाज की रचना करनी है तो संरचना यानी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना होगा जिससे ग्राम विकास की सही तस्वीर सामने आए। इसके लिए यह सोच बनानी होगी कि शहर जाकर रोजी-रोटी कमाना या कोई उद्योग लगाना और व्यवसाय करना ग्रामवासियों की च्वाइस यानी उनकी इच्छा पर निर्भर हो न कि मजबूरी हो, वे जाना चाहे तो जाएं वरना कोई जरूरत नहीं। वर्तमान स्थिति तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में पलायन रुकने के स्थान पर तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। 

ग्रामीण इलाकों में उद्योग स्थापित हों : इसके लिए सबसे पहले नौकरी और रोजगार की व्यवस्था के लिए गैर कृषि आधारित उद्योग लगाने होंगे और इसके लिए उस क्षेत्र में उपलब्ध कच्चे माल यानी लोकल मैटीरियल का इस्तेमाल करने की अनिवार्यता हो तथा स्थानीय आबादी को ट्रेनिंग देकर नौकरी पर रखने की बाध्यता हो। सरकार जमीन दे और उसके बदले उस स्थान पर उन्हीं उद्योगपतियों या व्यवसायियों को आमंत्रित करे जो इन शर्तों को पूरा कर सकते हों। इससे होगा यह कि उस क्षेत्र का विकास अपने आप होने लगेगा। 

स्कूल, ट्रेनिंग सैंटर खुलेंगे, वर्करों के लिए टाऊनशिप बनेगी, स्वास्थ्य सुविधाएं जैसे डिस्पैंसरी, हॉस्पिटल स्थापित होंगे। आने-जाने के साधन तैयार होंगे और वे सब चीजें होंगी जो आधुनिक जीवन के लिए चाहिएं। उदाहरण के लिए एन.टी.पी.सी. द्वारा स्थापित प्लांट को लिया जा सकता है जिसके लिए यह एक आवश्यक शर्त होती है कि उस क्षेत्र में स्थानीय आबादी के लिए वे सभी सुविधाएं तैयार की जाएं जो वहां जरूरी हैं। जब सभी उद्योग प्राथमिकता और आवश्यकता के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित होने लगेंगे तो फिर सड़क भी बनेगी, बस अड्डा बनेगा तो रेलवे स्टेशन भी और हो सकता है हैलीपैड या एयरपोर्ट भी बनाना पड़ जाए। जब उद्योग होगा तो बैंकिंग व्यवस्था भी स्थापित होगी, संचार और संवाद के साधन निर्मित होंगे, डिजिटल लिटरेसी होगी तो आधुनिक टैक्नोलॉजी का इस्तेमाल होगा। यह यहीं तक सीमित नहीं रहेगा, इसका असर निश्चित रूप से खेतीबाड़ी और उससे जुड़े व्यवसायों पर भी पड़ेगा। 

ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयां लगने से सामाजिक दायित्व की भावना को बल मिलेगा। आपसी लड़ाई-झगड़े,हिंसा की वारदातें कम होंगी और लोग भाईचारे और सहयोग की भावना के साथ रह सकेंगे। यहां केवल इस बात का ध्यान रखना होगा कि वही उद्योग लगेंगे जिनसे पर्यावरण को नुकसान न पहुंचता हो, प्रदूषण मुक्त हों और प्राकृतिक संसाधनों तथा खनिज संपदा पर विपरीत प्रभाव न पड़ता हो। क्या सरकार इस तरह की नीति बनाकर बड़े पैमाने पर समस्त ग्रामीण इलाकों को औद्योगिक केंद्र बनाने की किसी योजना को अमल में ला सकती है, यह सरकार ही नहीं, सामान्य नागरिक के सोचने का भी विषय है!-पूरन चंद सरीन
 

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