लगता है मध्यमवर्ग ने खुद को राष्ट्रीय संवाद से अलग कर लिया है

Edited By ,Updated: 10 Jul, 2022 04:17 AM

the middle class seems to have distanced itself from the national discourse

मुझे कई बार हैरानी होती है कि भारत में यदि वास्तव में एक मध्यवर्ग है जिसके संवैधानिक सुधारों, चिंताओं तथा परवाह बारे मूल्य भी मध्यम वर्ग के हैं। मैं जानता हूं कि ऐसे लोग हैं जिनके पास ऐसे मूल्य

मुझे कई बार हैरानी होती है कि भारत में यदि वास्तव में एक मध्यवर्ग है जिसके संवैधानिक सुधारों, चिंताओं तथा परवाह बारे मूल्य भी मध्यम वर्ग के हैं। मैं जानता हूं कि ऐसे लोग हैं जिनके पास ऐसे मूल्य हैं लेकिन एक ‘वर्ग’ के तौर पर आज वे मूल्य व्यापक तौर पर गायब दिखाई देते हैं। 

इसके विपरीत स्वतंत्रता आंदोलन पर नजर डालें। 19वीं शताब्दी के भारत में बड़ी कम संख्या में अमीर लोग थे तथा बाकी गरीब थे। पश्चिमी शिक्षा प्रणाली, विशेषकर अंग्रेजी की पढ़ाई तथा अंग्रेजी में पढ़ाई लागू करने तथा एक पश्चिमी कानूनी प्रणाली ने एक शिक्षित मध्यवर्ती वर्ग को उभारा जो मध्यम वर्ग बना। पहली बार शिक्षकों, डाक्टरों, वकीलों, जजों, सरकारी कर्मचारियों, सैन्य अधिकारियों, पत्रकारों तथा लेखकों के रूप में एक विद्वान वर्ग उभरा जिन्होंने मध्यमवर्ग का केंद्र निर्मित किया। कुछेक को छोड़ कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने स्वतंत्रता संघर्ष का नेतृत्व किया, के अधिकांश नेता मध्यमवर्ग से थे। 

उल्लेखनीय नामों में नौरोजी, गोखले, लाजपत राय, तिलक, सी.आर. दास, राजेन्द्र प्रसाद, पटेल, आजाद, राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, एलप्पन तथा पोट्टी श्रीरामूलू शामिल थे। डा. ताराचंद ने अपनी ‘हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमैंट इन इंडिया’ में कहा था कि ‘लोगों के जनसमूहों के बीच राष्ट्रीय भावना फैलाने, राष्ट्रीय आजादी आंदोलन को संगठित करने तथा आखिरकार विदेशी शासन से देश को मुक्त करवाने का श्रेय आवश्यक तौर पर इस वर्ग को जाना चाहिए।’ 

आगे रह कर नेतृत्व 
लोगों ने इन नेताओं के आह्वान पर प्रतिक्रिया दी। किसानों के संघर्ष तथा औद्योगिक कर्मचारियों के संघर्ष के साथ स्वतंत्रता आंदोलन न रोका जा सकने वाला बन गया। जो चीज मध्यमवर्गीय नेताओं तथा उनके अनुयायियों की पहचान बनी, वह थी उनकी पूर्ण नि:स्वार्थता : उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा, केवल लोगों के लिए स्वतंत्रता। 

स्वतंत्रता के लिए मध्यमवर्ग नीत संघर्ष देश में हर तरह के विकास से करीबी से जुड़ा था। टैलीविजन तथा इंटरनैट न होने के बावजूद समाचार तेजी से फैले। चंपारण सत्याग्रह, जलियांवाला बाग नरसंहार, पूर्ण स्वराज प्रस्ताव, दांडी मार्च, भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव को फांसी, भारत छोड़ो आंदोलन और नेता जी सुभाष चंद्र बोस नीत इंडियन नैशनल आर्मी की सफलता ने जनता में जोश भर दिया, जिसका श्रेय मध्यमवर्ग द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में भरी गई ऊर्जा तथा नेतृत्व को जाता है। 

नेतृत्व का अभाव
वह मध्यम वर्ग आज स्पष्ट तौर पर लापता है। ऐसा दिखाई देता है कि कोई भी चीज मध्यम वर्ग को उसके स्व:घोषित एकांतवास से हिला नहीं पा रही। बेरोक-टोक महंगाई, कुचलने वाले करों का बोझ, व्यापक बेरोजगारी, 2020 का दुखद आंतरिक प्रवास, कोविड संबंधित असंख्य मौतें, पुलिस तथा जांच एजैंसियों की ज्यादतियां, मानवाधिकारों का उल्लंघन, नफरत भरे भाषण, फेक न्यूज, मुसलमानों तथा ईसाइयों का प्रणालीगत बहिष्कार, संवैधानिक उल्लंघन, दमनकारी कानून, संस्थाओं का विनाश, चुनावी जनादेशों को पलटना, चीन के साथ सीमा विवाद बारे बात न करना-ऐसा दिखाई देता है कि मध्यम वर्गों को कुछ भी परेशान नहीं करता। 

मैं कुछ हालिया घटनाक्रमों बारे बताता हूं : नाना पटोले ने फरवरी 2021 में महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर पद से इस्तीफा दे दिया। विधानसभा के नियमों के अंतर्गत स्पीकर का चुनाव एक सीक्रेट बैलेट से होना चाहिए : इन्हें बदल कर चुनाव खुले मतदान से करने का प्रावधान कर दिया गया। राज्यपाल, भाजपा से संबंधित उत्तराखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री, जिनका एकमात्र कार्य नए स्पीकर के चुनाव के लिए एक तिथि निर्धारित करना था, ने इस आधार पर चुनावों को रोक दिया कि नियम में बदलाव, विवादित तथा अदालत के समक्ष हैं। 

उन्होंने 17 महीनों के लिए चुनाव को रोके रखा जिसके दौरान विधानसभा बिना किसी स्पीकर के कार्य करती रही। भाजपा की सहायता से एकनाथ शिंदे ने सरकार का तख्ता पलट दिया तथा 30 जून 2022 को मुख्यमंत्री बने। उन्होंने राज्यपाल से नए स्पीकर के चुनाव के लिए एक तिथि निर्धारित करने का आग्रह किया, राज्यपाल ने तुरन्त सहमति दे दी और 4 जुलाई को एक खुले मतदान द्वारा नया स्पीकर चुन लिया गया। राज्यपाल द्वारा नियम में बदलाव पर आपत्तियां हैरानीजनक रूप से गायब हो गईं। 

कुछ संपादकीयों के अतिरिक्त जनता में कोई रोष नहीं था। प्रत्यक्ष रूप से महाराष्ट्र के लोगों, विशेषकर शिक्षित मध्यमवर्गीय को राज्यपाल के प्रश्र सूचक व्यवहार बारे कोई चिंता नहीं या इसे लेकर कि स्पीकर का कार्यालय 17 महीनों के लिए खाली रहा अथवा भारत का संविधान नामक कोई पुस्तक भी है। क्या आप सोच सकते हैं कि अमरीका या ब्रिटेन में यदि स्पीकर के कार्यालय को खाली रखा जाता तो इस तरह की कोई चिंता नहीं होती? 

एक अन्य उदाहरण। जी.एस.टी. कौंसिल (भाजपा का प्रभुत्व) की 47वीं बैठक में पहले से पैक अनाज, मछली, पनीर, शहद, गुड़, गेहूं का आटा, बिना जमे मांस/मछली, फूले हुए चावलों आदि पर 5 प्रतिशत जी.एस.टी. थोप दी गई : प्रिटिंग, लेखन अथवा ड्राइंग की स्याही, चाकुओं, चम्मचों, फोक्र्स, पेपर नाइव्स, पैंसिल, शार्पनर्स व एल.ई.डी. लैंप्स पर जी.एस.टी. की दर 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दी गई और 1000 रुपए प्रतिदिन किराए वाले पहले छूट वाले होटलों पर 12 प्रतिशत टैक्स लगा दिया गया। ये तब लगाए गए जब डब्ल्यू.पी.आई. मुद्रास्फीति 15.88 प्रतिशत तथा सी.पी.आई. मुद्रास्फीति 7.04 प्रतिशत है। 

ऐसा दिखाई देता है कि आर.डब्ल्यू.एस, लायंस क्लब्स, महिला  समूहों, चैंबर्स ऑफ कामर्स, व्यापार संघों, उपभोक्ता संगठनों आदि को इसकी कोई परवाह नहीं। मुझे विश्वास है कि बहुत कम लोगों को याद होगा कि महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह क्यों शुरू किया था। 

स्व:घोषित संगरोधन
सुबह की प्रथा के तौर पर समाचार पत्र पढऩे, नैटफ्लिक्स से चिपकने तथा आई.पी.एल. क्रिकेट द्वारा मनोरंजन हासिल करते हुए मध्यमवर्ग ने जानबूझ कर खुद को राष्ट्रीय संवाद से अलग कर लिया है। किसानों ने लड़ाई लड़ी। आकांक्षावान सैन्य-उम्मीदवार लड़ रहा है। एक छोटी संख्या में पत्रकार, वकील तथा कार्यकत्र्ता लड़ रहे हैं। मुझे हैरानी होगी यदि मध्यमवर्ग को एहसास हो जाए कि इन लड़ाइयों का परिणाम इस देश के भविष्य को निर्धारित करेगा।-पी. चिदम्बरम

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