भारत जिहादी आतंक पर निर्णायक जीत से अभी दूर क्यों?

Edited By Updated: 13 Nov, 2025 05:22 AM

why is india still far from a decisive victory over jihadi terror

गत सोमवार (10 नवम्बर) की शाम राजधानी दिल्ली एक फिदायीन आतंकी हमले से दहल उठी। लाल किला मैट्रो स्टेशन के बाहर चलती कार में हुए भीषण विस्फोट से कई निर्दोष हताहत हो गए। यह हमला एक बार फिर से जिहाद पर बनी पुरानी धारणाओं को चुनौती दे रहा है। साथ ही यह भी...

गत सोमवार (10 नवम्बर) की शाम राजधानी दिल्ली एक फिदायीन आतंकी हमले से दहल उठी। लाल किला मैट्रो स्टेशन के बाहर चलती कार में हुए भीषण विस्फोट से कई निर्दोष हताहत हो गए। यह हमला एक बार फिर से जिहाद पर बनी पुरानी धारणाओं को चुनौती दे रहा है। साथ ही यह भी सोचने पर मजबूर कर रहा है कि आखिर सभ्य समाज इस पर आजतक निर्णायक विजय क्यों नहीं पा सका है? पिछले कुछ दशकों में भारत जब भी आतंकवाद का शिकार हुआ तब इसे वामपंथी मुस्लिम समाज में व्याप्त ‘अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी’ से जोड़ा गया है। यदि ऐसा ही है तो कश्मीरी डा.उमर नबी, अनंतनाग अस्पताल में डा.आदिल अहमद राठर, फरीदाबाद के अल-फलाह अस्पताल में कार्यरत डा.मुजम्मिल अहमद गनई और लखनऊ निवासी महिला डा.शाहीन सईद जैसे शिक्षित, संपन्न और समाज में मान-सम्मान पाने वाले मुस्लिमों ने जिहाद का मार्ग क्यों अपनाया?

दरअसल, इस्लाम में जिहादी सोच को मजबूती देने में मदरसा शिक्षा पद्धति की बड़ी भूमिका है। अधिकतर मुस्लिम परिवारों के बच्चे प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा यही ग्रहण करते हैं, जिसका माहौल कट्टरपंथी इस्लामी पहचान तक सीमित अर्थात् ‘काफि र-कुफ्र.’ अवधारणा से युक्त और सह-अस्तित्व प्रेरित बहुलतावाद से मुक्त रहता है। अक्सर आधुनिकीकरण के नाम पर मदरसों में छात्रों को गणित, विज्ञान और कम्प्यूटर आदि विषयों को भी पढ़ाया जाता है। वास्तव में, यह विषय केवल माध्यम हैं, इनका उपयोग या दुरुपयोग लोगों की मानसिकता पर निर्भर करता है। यही कारण है कि डा.उमर, डा.आदिल, डा.मुजम्मिल और डा.शाहीन आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी जिहाद का रास्ता नहीं छोड़ पाए। भारत सहित शेष विश्व में इस तरह के उच्च-शिक्षित (डॉक्टर-प्रोफैसर सहित) जिहादियों की एक लंबी फेहरिस्त है। न्यूयॉर्क के भीषण 9/11 आतंकी हमले के गुनहगार(लादेन सहित) आधुनिक शिक्षा में दक्ष थे। कड़वा सच यह है कि जब जिहादी मानसिकता का मेल विज्ञान-गणित-कम्प्यूटर से होता है तो वह और भी अधिक खतरनाक हो जाता है।

दिल्ली में हालिया जिहादी हमले की कडिय़ां कश्मीर से लेकर हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक जुड़ी हैं। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने डा.आदिल को श्रीनगर की दीवारों पर आतंकी संगठन ‘जैश-ए-मोहम्मद’ के पर्चे चिपकाने के आरोप में 6 नवंबर को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से गिरफ्तार किया था। जब पुलिस ने अस्पताल स्थित उसके लॉकर की तलाशी ली तो वहां से ए.के.-47 सहित कई हथियार बरामद हुए। पूछताछ में डा.मुजम्मिल का नाम सामने आया, जिसके फरीदाबाद स्थित किराए के मकान से 2,900 किलोग्राम विस्फोटक, हथियारों का जखीरा और बम बनाने के उपकरणों को जब्त किया गया। इसी कार्रवाई में पुलिस ने डा.शाहीन को भी घातक हथियारों के साथ धर दबोचा। हालिया जिहादी वारदात में जिस कार का इस्तेमाल हुआ, उसे बकौल जांचकर्ता डा.उमर चला रहा था। यह जिहादी मानसिकता केवल फिदायीन हमले तक सीमित नहीं है। गुजरात पुलिस ने हाल ही में डा.अहमद मोहिउद्दीन सैयद को उसके 2 सहयोगियों के साथ गिरफ्तार किया था। सैयद अरंडी के बीजों से घातक राइसिन जहर बना रहा था, जिसे पानी-भोजन में मिलाकर बड़े नरसंहार को अंजाम देने की योजना थी।

क्या धन-दौलत के लिए मुस्लिम समाज का एक वर्ग जिहाद का रास्ता अपनाता है? सच तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप (भारत सहित) में एक बड़ा मुस्लिम वर्ग उन्हीं इस्लामी आक्रांताओं-गजनवी, गोरी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली, टीपू सुल्तान आदि को अपना ‘नायक’ या फिर स्वयं को उनका ‘वैचारिक-उत्तराधिकारी’ मानता है, जिन्होंने ‘काफिर-कुफ्र ’ चिंतन से प्रेरित होकर भारत में असंख्य हिंदुओं का कत्लेआम किया, उनकी महिलाओं से बलात्कार किया, उनके हजारों मंदिरों को तोड़ा और सांस्कृतिक प्रतीकों-मानबिंदुओं को रौंदा। इस वर्ग की धारणा है कि भारतीय उपमहाद्वीप के अधूरे ‘गजवा-ए-हिंद’ का मजहबी दायित्व उस पर है। वास्तव में, बीते दशकों में हुए अनेकों जिहादी हमलों (26/11 सहित) की प्रेरणा और शताब्दियों पूर्व भारत में इस्लामी आक्रांताओं का चिंतन, एक ही है। इसका एक विवरण वर्ष 1908 में जी-रुस-केपेल और काजी अब्दुल गनी खान द्वारा अनुवादित ‘तारीख-ए-सुल्तान महमूद-ए-गजनवी’ पुस्तक में मिलता है। इसके अनुसार, जब महमूद गजनवी (971-1030) को एक पराजित हिंदू राजा ने मंदिर नष्ट नहीं करने के बदले अपार धन देने की पेशकश की तो उसने कहा,‘‘हमारे मजहब में जो कोई मूर्तिपूजकों के पूजास्थल को नष्ट करेगा, वह कयामत के दिन बहुत बड़ा इनाम पाएगा और मेरा इरादा हिंदुस्तान के हर नगर से मूर्तियों को पूरी तरह से हटाना है।’’ 

बीते कु छ समय से एक और विषाक्त नैरेटिव बनाया जा रहा है, जिसमें मुस्लिम समाज में व्याप्त ‘असहिष्णुता’, ‘कट्टरता’ और ‘आक्रामकता’ को मोदी सरकार की नीतियों से जोड़ दिया जाता है। यदि ऐसा है  तो 1947 में देश का मजहब के नाम पर रक्तरंजित विभाजन क्यों हुआ? क्यों इसे गांधीजी-नेहरू, पटेल नहीं रोक पाए? 1980-90 के दौर में मुस्लिम बहुल घाटी में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार-पलायन क्यों हुआ? क्यों कोलकाता (1993), भारतीय संसद (2001), गांधीनगर (2002), मुंबई (1993, 2006, 2008 और 2011), कोयंबटूर (1998), दिल्ली (2005 और 2008),जयपुर (2008), अहमदाबाद (2008), पुणे (2010), वाराणसी (2010), हैदराबाद (2013), बोधगया (2013) आदि शहरों में जिहादी हमले हुए? भारत वह भूमि है, जहां परंपरा-आधुनिकता साथ-साथ चलती हैं और अनादिकाल से संवाद की स्वतंत्रता है। इसलिए वेद, रामायण, महाभारत और मनुस्मृति आदि ग्रंथों पर खुली चर्चा होती है। परंतु यह खुलापन इस्लाम में नहीं है, जिसका दंश नूपुर शर्मा, तस्लीमा नसरीन, सलमान रुश्दी आदि झेल रहे हैं।-बलबीर पुंज 
 

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