एक रिसर्च पेपर से क्यों घबराई सरकार

Edited By Updated: 15 Aug, 2023 04:22 AM

why the government got scared of a research paper

15 अगस्त से एक दिन पहले आई यह खबर स्वतंत्रता के पक्षधर हर भारतीय को चिंता में डाल देगी। खबर यह है कि अशोक यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के युवा प्रोफैसर सब्यसाची दास को इस्तीफा देना पड़ा है। उनका अपराध सिर्फ यही है कि उन्होंने 2019 के चुनाव के आंकड़ों...

15 अगस्त से एक दिन पहले आई यह खबर स्वतंत्रता के पक्षधर हर भारतीय को चिंता में डाल देगी। खबर यह है कि अशोक यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के युवा प्रोफैसर सब्यसाची दास को इस्तीफा देना पड़ा है। उनका अपराध सिर्फ यही है कि उन्होंने 2019 के चुनाव के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए एक अकादमिक पर्चा लिखा था। यह खबर देश के विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में बची-खुची अकादमिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात है। वैसे सरकार को लेखक से डरने का कोई कारण नहीं है। सब्यसाची दास अभी कोई प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नहीं हैं। उनका अधिकांश लेखन जनकल्याणकारी योजनाओं के मूल्यांकन जैसे निरापद सवाल पर है। किसी राजनीतिक संगठन या विचारधारा से उनके संबंध का कोई संकेत नहीं है। यूं भी अशोक यूनिवर्सिटी कोई सरकारी ग्रांट पर चलने वाली संस्था तो है नहीं, जिस पर सरकार अपना डंडा चला सके। 

जिस लेख के बारे में हंगामा है वह अभी छपा नहीं है। शोध लेख सिर्फ एक-दो कांफ्रैंसों में प्रस्तुत किया गया है और प्रकाशन पूर्व चर्चा के लिए  उपलब्ध है। इस शोध लेख में न कोई सरकार की आलोचना है, न भाजपा की निंदा, न कोई आरोप-प्रत्यारोप और न ही कोई राजनीतिक लफ्फाजी। ‘डैमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन वल्र्डस लार्जैस्ट डैमोक्रेसी’(दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक स्खलन) नामक इस  लेख में 2019 लोकसभा चुनाव के आधिकारिक परिणामों का संख्यकीय पद्धतियों के सहारे विश्लेषण किया गया है।  क्योंकि एक जमाने में मैं इस विषय का जानकार रहा हूं इसलिए मैं विश्वास से कह सकता हूं कि सब्यसाची दास का लेख भारत के चुनावी आंकड़ों पर लिखे गए सबसे गंभीर और गहन लेखों में से एक है। 

विवाद इसके आंकड़ों या पद्धति से नहीं बल्कि इस लेख के निष्कर्ष से है। 2019 चुनाव के बूथ से लेकर सीट तक के आंकड़ों का बारीकी से विश्लेषण करने के बाद लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि दाल में कुछ काला है। जिन 59 सीटों पर जीत-हार का फैसला 5 प्रतिशत से कम से अंतर से हुआ है, उनमें से 41 भाजपा की झोली में गईं। गणित के सामान्य नियमों के अनुसार और देश और दुनिया में चुनावों का पुराना रिकॉर्ड देखते हुए यह बहुत असामान्य रुझान है। यह पूरा लेख इस असामान्य रुझान की बारीकी से चीर-फाड़ करता है। लेखक इस संभावना की जांच कर इसे खारिज करता है कि ऐसा भाजपा द्वारा बेहतर पूर्वानुमान और अच्छे चुनाव प्रचार की वजह से हुआ होगा। फिर एक-एक बात का पूरा प्रमाण देते हुए यह लेखक चुनाव में कुछ सीटों पर हेरा-फेरी की ओर इशारा करता है। 

लेखक के अनुसार ऐसा या तो कुछ चुङ्क्षनदा सीटों पर मतदाता सूची में मुस्लिम मतदाताओं के नाम कटवाने या फिर मतदान या मतगणना में गड़बड़ी के जरिए हुआ होगा क्योंकि लेखक सांख्यिकीय पद्धति पर आधारित है इसलिए धोखाधड़ी की संभावना बता सकता है, लेकिन उसका प्रमाण नहीं दे सकता। कोई सनसनीखेज आरोप लगाने से बचते हुए लेखक यह स्पष्ट करता है कि अगर ऐसा हुआ भी है तो इससे भाजपा को ज्यादा से ज्यादा 9 से 18 सीटों का फायदा मिला होगा, जिससे भाजपा के बहुमत पर असर नहीं पड़ता। इसलिए लेखक यह स्पष्ट करता है कि 2019 में भाजपा धोखाधड़ी से चुनाव जीती थी, ऐसा निष्कर्ष बिल्कुल गलत होगा। 

इतनी सीमित बात कहने से भी बवाल मच गया है। भाजपा समर्थक लेखक पर हर तरह के अकादमिक और व्यक्तिगत हमले कर रहे हैं।  भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे (जिनकी अपनी डिग्री को लेकर विवाद है) ने अशोक विश्वविद्यालय से पूछा कि उसने अपने प्रोफैसर को ऐसा लेख लिखने की अनुमति कैसे दी? अपने अध्यापक के पक्ष में खड़ा होने की बजाय अशोक विश्वविद्यालय ने एक विज्ञप्ति जारी कर लेख और लेखक से पल्ला झाड़ लिया। कहने को तो प्रोफैसर दास ने विश्वविद्यालय से इस्तीफा दिया है (उन्हें विश्वविद्यालय द्वारा हटाया नहीं गया है) लेकिन इस हालात में दिए गए इस्तीफे को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति नहीं माना जा सकता। जाहिर है कहीं न कहीं लेखक पर दबाव रहा होगा जिसके चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस घटना का अशोक विश्वविद्यालय में होना अपने आप में पूरे देश के लिए अशुभ संकेत है। 

गौरतलब है कि इससे पहले प्रोफैसर प्रताप भानु मेहता और राजेंद्रन नारायण को भी सरकारी दबाव की आशंका के चलते अशोक विश्वविद्यालय छोडऩा पड़ा था। यह विश्वविद्यालय समाज विज्ञान और मानविकी में देश के सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थान के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। यह वित्तीय रूप से भी सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र है। विश्वविद्यालय का दावा है कि वह अकादमिक स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल सच और प्रमाणिक बातें कहने की स्वतंत्रता ही नहीं होती। कुछ अपवाद को छोड़कर जिसे हम असत्य समझते हैं उसे भी सार्वजनिक रूप से कहने की आजादी होनी चाहिए ताकि उसका सार्वजनिक खंडन होकर हम सब सच की दिशा में आगे बढ़ें। इसलिए अगर एक क्षण को यह भी मान लें कि सब्यसाची दास की शोध त्रुटिपूर्ण है और उनके निष्कर्ष पुख्ता नहीं हैं तब भी उनकी आवाज को दबाना लोकतंत्र का अहित करता है।  हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह उनके आंकड़ों, पद्धति और निष्कर्ष का खंडन करे, जिसकी कोशिश भाजपा समर्थकों ने पिछले 2 सप्ताह में की है।-योगेन्द्र यादव    
    

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