जोहरान ममदानी बनाम भारत के कम्युनिस्ट

Edited By Updated: 12 Nov, 2025 05:30 AM

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अमरीकी शहर न्यूयॉर्क के मेयर के रूप में 34 वर्षीय मुस्लिम जोहरान कोवाम ममदानी की जीत गर्मी के दिन में ठंडी हवा के झोंके जैसी है। ममदानी 1892 के बाद से जीतने वाले सबसे कम उम्र के मेयर हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दक्षिण एशियाई क्षेत्र में मुस्लिम धर्म...

अमरीकी शहर न्यूयॉर्क के मेयर के रूप में 34 वर्षीय मुस्लिम जोहरान कोवाम ममदानी की जीत गर्मी के दिन में ठंडी हवा के झोंके जैसी है। ममदानी 1892 के बाद से जीतने वाले सबसे कम उम्र के मेयर हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दक्षिण एशियाई क्षेत्र में मुस्लिम धर्म से संबंधित इस शहर के पहले मेयर होने का गौरव भी प्राप्त है। याद रहे, उन्होंने यह शानदार जीत बिना किसी बड़े व्यापारिक घरानों के समर्थन के, न्यूनतम खर्च में हासिल की है। जोहरान ममदानी ने दुनिया भर के लोकतंत्र-प्रेमी, न्यायप्रिय लोगों को जीत का यह अनमोल तोहफा तब दिया है, जब एक ओर ट्रम्प उन्हें जिताने की सजा के तौर पर शहर के विकास के लिए संघीय धन में भारी कटौती करने की धमकी दे रहे थे तथा दूसरी ओर बड़े-बड़े व्यापारिक घराने ट्रम्प के उम्मीदवार कुओमो को खरबों डॉलर ‘दान’ के रूप में दे रहे थे। 

इससे भी ज्यादा उल्लेखनीय बात यह है कि ‘लोकतंत्र और समाजवाद’ की वकालत करने वाला एक व्यक्ति अमरीका के एक विश्व-प्रसिद्ध शहर का मेयर चुना गया है, जबकि ट्रम्प समेत दुनिया भर की साम्राज्यवादी लुटेरी और दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी ताकतें ‘इस्लामोफोबिया’ के झूठे डर के तले समाज को ध्रुवीकृत करने की हरसंभव कोशिश कर रही हैं। जीत के बाद अपने पहले संबोधन में ममदानी ने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा 15 अगस्त, 1947 को दिए गए भाषण ‘आतंकवादी और नियति’ का जिक्र किया और अपनी जीत को ‘एक नए युग की शुरुआत’ बताया। जब भारत के वर्तमान शासक हर लानत-मलामत के साथ कम्युनिस्टों के साथ ही नेहरू और महात्मा गांधी को कोस रहे हों, तब नेहरू द्वारा लिखित विश्व प्रसिद्ध पुस्तक के प्रेरक वाक्यों का पाठ करना पूरे संघ परिवार के लिए एक आईना है। आम लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दों, जैसे महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं में गिरावट, पर ममदानी के प्रचार ने इस जीत में बड़ी भूमिका निभाई। 

गहरे आर्थिक संकट के वर्तमान दौर में, दुनिया के बड़े पूंजीपति और बहुराष्ट्रीय निगम विभिन्न देशों में निर्मम नवउदारवादी आॢथक नीतियों को लागू करने और साम्प्रदायिक-फासीवादी राज्य ढांचे स्थापित करने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। ऐसे समय में, अंधेरी रातों में टिमटिमाते जुगनूं की रोशनी की तरह मोमबत्ती की विजय भविष्य में पूंजीवादी व्यवस्था पर ‘लोकतांत्रिक विचारों और समाजवादी व्यवस्था’ की श्रेष्ठता सिद्ध करने का एक सशक्त माध्यम बनेगी।  आज जनता ने ब्राजील और मैक्सिको जैसे लैटिन अमरीकी देशों सहित दुनिया के कई देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी वामपंथियों को सत्ता की चाबियां सौंप दी हैं। अमरीका अपनी युद्धनीति, ‘वाणिज्यिक शुल्क’ लगाने जैसी बलपूर्वक कार्रवाइयों और तख्तापलट के जरिए उन्हें सत्ता से हटाना चाहता है। ऐसे नाजुक समय में, पड़ोसी देश नेपाल की 10 कम्युनिस्ट पाॢटयों और गुटों ने एक ही पार्टी, ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी’ बनाने और अगले साल मार्च में होने वाले आम चुनाव उसके बैनर तले लडऩे का ऐतिहासिक फैसला लिया है।

भारत के कम्युनिस्टों के एक वर्ग को एक छोटे से क्षेत्र में सशस्त्र संघर्ष के जरिए सत्ता हथियाने का जो अनुभव रहा है, वह अब माओवादियों के आत्मसमर्पण के रूप में देखा जा सकता है। तमाम कुर्बानियों और दावों के बावजूद, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि देश की वर्तमान परिस्थितियों में एक छोटे से क्षेत्र के सशस्त्र संघर्ष का भारत की प्रबल शक्ति के सामने यह हश्र हुआ? अच्छी बात यह है कि अपने अतिवामपंथी, क्रांतिकारी रुख से सबक सीखकर, उनमें से कई ने अब शांतिपूर्ण सार्वजनिक राजनीतिक गतिविधियां जारी रखने का फैसला किया है।
यह भी एक तथ्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में बलिदान देने वालों में कम्युनिस्ट सबसे आगे थे।

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने कम्युनिस्टों पर ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ और ‘लाहौर षडयंत्र केस’ जैसे कई गंभीर मुकद्दमे दर्ज करके उन्हें फांसी की सजा और लंबे समय तक काले पानी की जेलों में कैद रखा था। आजादी के बाद भी, कम्युनिस्टों ने देश की मेहनतकश जनता के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करके और सभी प्रकार की सरकारों की जनविरोधी नीतियों का डटकर विरोध करके एक गौरवशाली इतिहास रचा है। आज भी, अगर देश में कोई विश्वसनीय राजनीतिक दल है जो भ्रष्टाचार से दूर रहकर जनहितैषी राजनीति करता है, तो वह कम्युनिस्ट हैं। कम्युनिस्ट ही वे हैं जो सांप्रदायिक सद्भाव और देश की एकता व अखंडता बनाए रखने के सच्चे पैरोकार हैं और जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक रुख अपनाकर विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ डटकर मोर्चा संभाला है। 

दिल्ली स्थित ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ के छात्रसंघ चुनाव में, उसे बदनाम करने और खत्म करने के हर हथकंडे अपनाने वाली सत्तारूढ़ पार्टी ने दक्षिणपंथी कार्यकत्र्ताओं को हराकर भारी जीत हासिल की है। यह जीत भारत के युवाओं के मन में वामपंथी राजनीति की मजबूत उपस्थिति का प्रतीक है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि तमाम कुर्बानियों के बावजूद, कम्युनिस्ट अभी तक भारत में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर नहीं पाए हैं। कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी अलग-अलग समय पर कई राजनीतिक गलतियां करने से मुक्त नहीं कही जा सकती। लेकिन कोई भी विचारशील व्यक्ति कम्युनिस्टों के जनपक्षधर चरित्र और ईमानदार कार्यों को नकार नहीं सकता। देश की वर्तमान खतरनाक स्थिति में, क्या न्यूयॉर्क के मेयर पद पर एक वामपंथी युवक की जीत, नेपाल में दस कम्युनिस्ट पाॢटयों की एकता और संघ परिवार के सांप्रदायिक हमलों का प्रतिरोध करते हुए जे.एन.यू. में वामपंथी छात्र संगठनों की जीत भारत के कम्युनिस्टों के लिए उत्साह का स्रोत बन सकती है?-मंगत राम पासला

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