Dharmik Katha: आसक्ति का मन से त्याग जरूरी

Edited By Jyoti,Updated: 20 Apr, 2022 11:13 AM

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एक नव-दीक्षित शिष्य ने अपने गुरुदेव से कहा, ‘‘उपासना में मन नहीं लगता। भगवान की ओर चित दृढ़ नहीं होता।’’

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एक नव-दीक्षित शिष्य ने अपने गुरुदेव से कहा, ‘‘उपासना में मन नहीं लगता। भगवान की ओर चित दृढ़ नहीं होता।’’ 
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गुरु ने गंभीर दृष्टि डालकर शिष्य को देखा और बोले, ‘‘सच ही कहते हो वत्स! यहां ध्यान लगेगा भी नहीं। अन्यत्र चलकर साधना करेंगे, वहां ध्यान लगेगा। आज सायंकाल ही यहां से प्रस्थान करेंगे।’’ 

सायंकाल! शिष्य कुछ चिंतित स्वर में प्रश्र कर बैठा, जिसका गुरु ने कोई उत्तर न दिया।

सूर्यास्त के साथ ही वे दोनों एक ओर चल पड़े। गुरु के हाथ में मात्र एक कमंडल था, शिष्य के हाथ में थी एक झोली जिसे वह बहुत यत्नपूर्वक संभाले हुए चल रहा था। मार्ग में एक कुआं आया। शिष्य ने शौच की आशंका व्यक्त की। दोनों रुक गए। बहुत सावधानी से उसने झोला गुरु के पास रखा और शौच के लिए चल दिया। जाते-जाते उसने कई  बार झोले की ओर दृष्टि डाली। 

‘‘कुछ देर बाद एक आवाज सुनाई दी और झोले में पड़ी कोई वस्तु कुएं में जा समाई।’’ 

शिष्य दौड़ा हुआ आया और चिंतित स्वर में बोला, ‘‘भगवन्! झोले में सोने की ईंट थी वह कहां गई?’’ 
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कुएं में चली गई, अब कहो तो चलें, कहो तो फिर वहीं लौट चलें जहां से आए हैं, अब ध्यान न लगने की चिंता न रहेगी। एक गहरी श्वास छोड़ते हुए शिष्य ने कहा, ‘‘सच ही गुरुदेव! आसक्ति का मन से त्याग किए बिना कोई भी किसी काम में मन नहीं लगा सकता।’’

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