शास्त्रों से: आज ही करें ये छोटा सा काम, मिलेगा बड़ा पुण्य

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 10 Dec, 2019 08:47 AM

importance of tree plantation

भारतीय संस्कृति में प्रकृति सेवा एवं पर्यावरण रक्षा की दृष्टि से वृक्षारोपण का अहम स्थान है। वृक्षारोपण का मूल स्रोत वेद, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र तथा आयुर्वेद आदि हैं। कोई भी ऐसा वृक्ष नहीं, जिसका

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भारतीय संस्कृति में प्रकृति सेवा एवं पर्यावरण रक्षा की दृष्टि से वृक्षारोपण का अहम स्थान है। वृक्षारोपण का मूल स्रोत वेद, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र तथा आयुर्वेद आदि हैं। कोई भी ऐसा वृक्ष नहीं, जिसका उपयोग आयुर्वेद में वर्णित न हो। कोई भी पुराण वृक्ष-महिमा में तंग हृदय प्रतीत नहीं होता। वृक्ष हर जीव के लिए उपकारी, सेवा-धर्म के प्रेरक, दैवीय शक्ति से संपन्न और सर्वपूज्य हैं। भारतीय संस्कृति की सर्वप्रथम प्रस्तुति ऋग्वेद हैं, जिसमें किसी भी मंगल-कार्य के समय वृक्षों के कोमल पत्तों का स्मरण किया गया है- काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती परुष: परुष: परि।।   (कृ.यजु. 4/2/9/3)

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इसी प्रकरण में पीपल की महिमा भी कही गई है- अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता। (ऋग्वेद 10/97/5)

यजुर्वेद में प्रजा कल्याण के लिए वनस्पति की स्तुति की गई है- शिवो भव प्रजाभ्यो मानुषीभ्यस्त्वमंगिर:।।  (यजुर्वेद 11/45) 

शमी वृक्ष समस्त अमंगलों का नाशक माना गया है तथा दु:स्वप्रों का नाशक भी।

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वेदों में वृक्षों की महिमा: स्मृतियों में न केवल वृक्ष लगाने का महत्व है बल्कि वृक्ष नष्ट करने वाले के लिए दंड-विधान भी लिखा है। वृक्षों पर ही बारिश एवं शुद्ध हवा का दायित्व है। इन पर देवी-देवताओं का वास है ये तो स्पष्ट ही है, इसी दृष्टि से शास्त्रों में उनकी पूजा, जल द्वारा उनका सिंचन तथा उनकी सेवा-संरक्षा का उपदेश दिया गया है। वृक्षों को एकसाथ इकट्ठा करके बगीचों का रूप देने का पहला वर्णन स्मृतियों में ही मिलता है। पुराणों तथा शास्त्रों में वृक्षों की विभिन्न गाथाएं हैं।

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वृक्षों को भी जीव मानकर मानव सृष्टि द्वारा उनकी उत्पत्ति का वर्णन पुराणों की प्रथम खोज है। पुराणों में वृक्षों को कश्यप जी की संतान कहा गया है। धरती में इनका जो स्थान है, उससे भी बढ़कर देवताओं के धाम में भी है। नंदनवन, पुष्पक, सर्वतोभ्रद आदि वन, जिनमें देवतागण आनंदित होते हैं, इन्हीं से परिपूर्ण होने के कारण ख्याति प्राप्त है। भागवत पुराण में इनकी उत्पत्ति की कथा मिलती है। 

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दक्ष प्रजापति की साठ में से तेरह कन्याएं कश्यपजी की पत्नी बनीं। उनमें अदिति से देवगण, दिति से दैत्य, दनु से दानव, सुरसा से सर्प तथा इला से भूरुह (वृक्ष) पैदा हुए। अत: एक वृक्ष एक संतान के समान माना जाता है। मत्स्य पुराण में लिखा है कि एक वृक्ष दस पुत्र उत्पन्न करने के बराबर है। दस कुएं निर्माण करवाने का पुण्य एक बावली बनवाने से प्राप्त होता है तथा दस बावलियां बनवाने का पुण्य एक तालाब बनवाने से और एक पुत्र का जन्म दस तालाबों के तुल्य तथा एक वृक्ष दस पुत्रों के बराबर है।

एक वृक्ष से न जाने कितने जीवों को लाभ होता है। संभव है कि इसी परोपकार की भावना को एवं नि:स्वार्थ सेवामय जीवन की श्रेष्ठता को व्यक्त करने के लिए ही वृक्षों का माहात्म्य संतान से भी अधिक बतलाया गया है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है कि पीपल का वृक्ष लगाने वाला हजारों वर्ष तक तपोलोक में निवास करता है। सब वृक्षों में पीपल श्रेष्ठ हैं क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं अपने श्रीमुख से उसको अपना रूप बताया है। अत: पीपल के वृृक्ष का पूजन और पीपल वृक्ष का आरोपण अनंत पुण्यदायी है।

इसी प्रकार स्कंद पुराण में आंवले के वृक्ष की महिमा गाई गई है। इस वृक्ष के स्कंध पर रुद्र भगवान, शाखाओं में नदी, प्रशाखाओं में देवताओं का निवास बतलाया गया है। 

अंत में कहा जा सकता है की वृक्षारोपण करना किसी भी तीर्थ, व्रत, उपवास से कम नहीं। भारतीय संस्कृति में अपने हाथों किसी भी स्थान पर एक वृक्ष लगाना धार्मिक कर्तव्य है और यह परमार्थ सेवा का सबसे बड़ा निदान है। 

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