कबीर वाणी : एक आता है तो एक चला जाता है

Edited By Updated: 04 Dec, 2025 03:35 PM

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Kabir Amritwani: अबके बिछुड़े न मिले, दूर पड़ेंगे जाए, माली आत देखि के कलियां करें पुकार।फूली फुली चुनि लई, काल हमारी बार। कालरूप माली को आता हुआ देखकर, कलिया परस्पर पुकारने लगीं। जो-जो फूल खिल गए थे, उन सबको माली ने चुन लिया और कल अब हम भी फूल बनकर...

Kabir Amritwani: अबके बिछुड़े न मिले, दूर पड़ेंगे जाए, माली आत देखि के कलियां करें पुकार।फूली फुली चुनि लई, काल हमारी बार।

कालरूप माली को आता हुआ देखकर, कलिया परस्पर पुकारने लगीं। जो-जो फूल खिल गए थे, उन सबको माली ने चुन लिया और कल अब हम भी फूल बनकर खिल जाएंगी तो यह हमें चुन लेगा। इसी प्रकार संसार में क्रमश: सभी जीवों को काल ग्रास लेता है।

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बढ़ही आवत देखि के, तरुवर रुदन कराय। मैं अपंग संसै नहीं, पच्छी बसते आय॥

काल रूपी बढ़ई को आता देख वृक्ष उदास होकर रोने लगा। मैं तो अपंग हूं अर्थात कहीं बचकर भाग नहीं सकता, अत: यह निश्चित ही मुझे काट लेगा। मेरी तो कोई बात नहीं, परन्तु मेरे ऊपर इतने सारे पक्षी रहते हैं, उनका क्या होगा? इसी प्रकार संसारी जीव अपनों के मोह में दुखी होता चला जाता है।

तरुवर पात सों यौं कहे, सुनो पात इक बात। या घर याही रीति है, इक आवत इक जात॥

झड़ते हुए पत्ते को अपने से अलग होते देखकर एक वृक्ष ने उससे कहा-ए पत्ते, उदास न हो। ध्यानपूर्वक मेरी बात सुन। हमारे इस घर-संसार में यही रीति परम्परा है कि एक आता है तो एक चला जाता है अर्थात यहां पर कोई भी स्थायी नहीं है, आने-जाने का क्रम चलता रहता है।

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पात झरता यौं कहे, सुन तरुवर बन राय। अबके बिछुड़े न मिले, दूर पड़ेंगे जाय।।

वृक्ष से झड़ता हुआ पत्ता कहने लगा हे विशाल वन के महान वृक्ष। यह समय का फेर है और हम विवशता के कारण बिछुड़ रहे हैं। परन्तु अबकी बार के बिछुड़े हुए हम फिर कभी नहीं मिल पाएंगे। संभवत: कहीं दूर जा पड़ेंगे यही दशा संसार के जीवों के बिछुड़ने की है।

जो उगै सो आथवे, फूलै सो कुम्हिलाय। जो चूनै सो ढहि पड़ै, जामै सो मरि जाय॥  

इस जगत में कुछ भी स्थायी और स्थिर नहीं है। यहां कालानुसार जो उदय होता है वह अस्त भी होता है। इसी प्रकार जो फलता-फूलता है वह अवश्य ही कुम्हलाता है। जिसका चुनकर निर्माण किया जाता है, वह एक समय ढह पड़ता है। जो भी यहां पर जन्म लेता है वह निश्चित रूप से मरता भी है अर्थात यहां सब कुछ काल के अधीन है।

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निश्चय काल गरास हो, बहुत कहा समुझाय। कहैं कबीर मैं का कहूं, देखत न पतियाय॥

इसमें तनिक भी संदेह नहीं है, निश्चय ही यह सारा जगत काल का ग्रास हो जाएगा। यह मैंने बहुत प्रकार से समझाकर कह दिया है। कबीर साहेब कहते हैं कि अब मैं इससे अधिक और क्या कहूं? लोगों को मरते हुए देखकर भी दूसरों को विश्वास नहीं होता।

कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन सारा खिन मीठ। काल्हि अलहजा मारिया, आज मसाना दीठ॥

कबीर साहेब करते हैं कि यह जीवन भी क्या है, इसमें कुछ भी तो विशेष नहीं है। यहां सारा कुछ खट्टा और मीठा-सा है दुख थोड़ा खट्टा और क्षणिक सुख मीठा-सा। जिन्होंने कल रण क्षेत्र में बड़े-बड़े वीर शत्रुओं को मार गिराया था, वे भी आज नहीं रहे। उन्हें आज श्मशान में जाकर पड़ा हुआ देख लो। अर्थात यहां सब कुछ सारहीन है।

कबीर मंदिर आपने, नित उठि करता आल। मरहट देखी डरपता, चौड़े दीया डाल॥

कबीर साहेब कहते हैं कि जो अपने मंदिर में नित्य उठकर आनंद विहार किया करते थे और श्मशान को देखकर डरते थे, उन्हें भी उस निर्दयीकाल ने चौड़े मैदान में लाकर डाल दिया है। अत: यह देखकर यहां आशा करना व्यर्थ है।

कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात। न जाने क्या होयगा, ऊगंता परभात॥

कबीर साहेब कहते हैं कि अभी तुम्हारे लक्ष्य, सफलता, जीवन कल्याण का मार्ग बहुत ही दूर है और अभी अज्ञान मोह की अंधेरी रात भी बीच में पड़ी है, परन्तु काल का क्या भरोसा, न जाने कब क्या होगा? अत: प्रभात का सूर्य उदय होने तक सावधान रहो।

कबीर गाफिल क्यों फिरै, क्या सोता घनघोर। तेरे सिराने जम खड़ा ज्यूं अंधियारे चोर॥

कबीर साहेब कहते हैं कि ऐ अज्ञानी, तू इतनी लापरवाही से मस्त हुआ क्यों घूमता-फिरता है और माया मोह की घनघोर रात्रि में तू क्या पड़ा सोता है क्या तुझे मालूम नहीं है कि तेरे सिरहाने काल ऐसे ही खड़ा है जैसे अंधेरे में चोर।

कबीर सब सुख राम है, औरहि दुख की रासि। सुर न मुनि अरु असुर सुर, पड़े काल की फांसि॥

कबीर साहिब कहते हैं कि यह संसार ही अनेक दुखों का भंडार है। यहां पर परम सुख-शांति केवल अविनाशी अंतर्यामी परमात्मा राम के ध्यान-भजन में है, अन्यथा कहीं नहीं। सभी देवता, मनुष्य, मुनि और राक्षस-असुर आदि जो भी हुए हैं, वे अपना कर्मफल भोगते हुए काल के फंदे में फंसे हैं।

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