Maharaj Swami Samarth: श्रीस्वामी समर्थ महाराज ने 600 वर्ष की आयु में ली महासमाधि

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 20 Jul, 2022 11:46 AM

maharaj swami samarth

श्रीस्वामी समर्थ महाराज का जन्म सन् 1275 के आसपास हुआ था। स्वामी जी को महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में गंगापुर के स्वामी ‘नृसिंह सरस्वती’ के नाम से जाना जाता है तो वहीं कुछ जगहों पर उन्हें ‘चंचल भारती’ और ‘दिगम्बर स्वामी’ के

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Maharaj Shri Swami Samarth: श्रीस्वामी समर्थ महाराज का जन्म सन् 1275 के आसपास हुआ था। स्वामी जी को महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में गंगापुर के स्वामी ‘नृसिंह सरस्वती’ के नाम से जाना जाता है तो वहीं कुछ जगहों पर उन्हें ‘चंचल भारती’ और ‘दिगम्बर स्वामी’ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि पहले स्वामी नृसिंह के रूप में उन्होंने अपने भक्तों को ज्ञान दिया। पूर्व स्वरूप में अलग-अलग समय पर उन्होंने लगभग 400 वर्षों तक तपस्या की। 1458 में नृसिंह सरस्वती श्री शैल्य यात्रा के कारण कर्दली वन में अदृश्य हुए।

इसी वन में वह 300 वर्ष प्रगाढ़ समाधि अवस्था में थे। तभी उनके दिव्य शरीर के चारों ओर चींटियों ने भयंकर बांबी निर्माण किया। वह चलित दुनिया से दूर हो गए थे। एक दिन एक लकड़हारे की कुल्हाड़ी गलती से बांबी पर गिर गई जब उसने कुल्हाड़ी उठाई तो उसे खून के धब्बे दिखाई दिए उसने वहां की झाड़ी व बांबियों की सफाई की तो देखा की एक बुजुर्ग योगी साधना में लीन थे। घबराकर वह योगीराज के चरणों पर गिर पड़ा और ध्यान भंग करने की क्षमा मांगने लगा। स्वामी जी ने आंखें खोलीं और उससे कहा कि तुम्हारी कोई गलती नहीं है, यह मुझे फिर से दुनिया में जाकर अपनी सेवाएं देने का दैवीय आदेश हैं।

1100  रुपए मूल्य की जन्म कुंडली मुफ्त में पाएं । अपनी जन्म तिथि अपने नाम , जन्म के समय और जन्म के स्थान के साथ हमें 96189-89025 पर व्हाट्सएप करें

नए स्वरूप में सन् 1854 से 30 अप्रैल 1878 (24 वर्ष) तक अक्कलकोट में रह कर लगभग 600 वर्ष की आयु में उन्होंने महासमाधि ली। कहते हैं कि वह बहुत जगह घूमे। प्रथम वह काशी में प्रकट हुए। आगे कोलकाता जाकर उन्होंने काली माता के दर्शन किए।
इसके पश्चात गंगा तट से अनेक स्थानों का भ्रमण करके वह गोदावरी तट पर आए। वहां से हैदराबाद होते हुए 12 वर्षों तक वह मंगल वेढ़ा रहे। तदोपरांत पंढरपुर, मोहोल, सोलापुर मार्ग से अक्कलकोट आए।

दत्त सम्प्रदाय में श्रीपाद श्रीवल्लभ तथा नृसिंह सरस्वती दत्तात्रेय के पहले तथा दूसरे अवतार माने जाते हैं। श्रीस्वामी समर्थ ही नृसिंह सरस्वती हैं अर्थात दत्तावतार है।

अक्कलकोट के परब्रह्म श्री स्वामी समर्थ अपने भक्तों को सुरक्षा का वचन देते हुए कहते थे, ‘‘डरो नहीं, मैं तुम्हारी पीठ पीछे हूं।’’ भक्तों को आज भी इसका भान होता है।

श्रीस्वामी समर्थ अक्कलकोट प्रथम खंडोबा के मंदिर में 1856 में प्रकट हुए। उन्होंने जनजागृति का कार्य किया।

स्वामी गिरनार पर्वत पर अदृश्य हुए तथा दूसरे ही क्षण आंबेजोगाई में प्रकट हुए। हरिद्वार से काठेवाड़ के जीविका क्षेत्र स्थित नारायण सरोवर के बीचों-बीच सहजासन में बैठे दिखाई दिए।

तदोपरांत भक्तों ने उन्हें पंढरपुर की भीमा नदी की बाढ़ में चलते हुए देखा। कहते हैं कि स्वामी जी पैदा होते ही केवल ॐ का उच्चारण करने लगे। 8 वर्ष की उम्र तक ॐ तथा ओमकार के अलावा उन्होंने कुछ नहीं कहा। उनके जनेऊ कार्यक्रम के बाद यकायक वह चारों वेदों को उच्चारित करने लगे फिर वह तपस्या करने कांची की तरफ निकल पड़े।

उनकी भक्ति व तप से प्रसन्न होकर स्वामी श्री कृष्ण सरस्वती ने उन्हें दीक्षा दी। स्वामी जी शिव भक्त थे। गुरुओं की महानता के बारे में वह कहते थे कि गुरु के वचन मंत्र की तरह होते हैं और गुरु के बिना मुक्ति बहुत मुश्किल होती है। स्वामी समर्थ अपने शिष्यों से अक्सर कहते थे कि आलसी व्यक्ति का चेहरा भी मत देखो। अपने जीवन यापन के लिए मेहनत करो और पसीना बहाओ नशा मत करो। नशा आध्यात्म की पटरी से आदमी को उतार देता है।

धर्म के रास्ते पर जीत अवश्य होती है गुरु की कृपा या साथ पाने के लिए अहंकार और शर्म छोड़नी चाहिए। वह कहते थे कि भाग्य का लिखा होकर रहेगा। स्थान-स्थान पर स्वामी समर्थ के अनगिनत भक्त हैं। 1878 में स्वामी समर्थ ने अक्कलकोट में अपने पार्थिव शरीर का भले ही त्याग किया हो किन्तु ‘हम गया नहीं जिंदा है’, उनका यह वचन भक्तों का आधार है।

PunjabKesari kundli

Related Story

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!