नारद जी के श्राप से भगवान को झेलने पड़े अनेको दुख

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 06 May, 2023 07:47 AM

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माता पार्वती जी से शिव जी कहते हैं- राम जनम के हेतु अनेका। परम विचित्र एक तें एका।।

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Narada love story: माता पार्वती जी से शिव जी कहते हैं- राम जनम के हेतु अनेका। परम विचित्र एक तें एका।।

कृपासागर भगवान विष्णु भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। श्री रामचन्द्रजी के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक से एक बढ़कर विचित्र हैं।

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥ गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ज्ञानी॥

एक बार नारद जी ने प्रभु (भगवान विष्णु ) को श्राप दिया था, अत: एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुन कर पार्वती जी बड़ी चकित हुईं और बोलीं, ‘‘नारद जी तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं। मुनि ने भगवान को श्राप किस कारण से दिया? लक्ष्मीपति भगवान ने उनका क्या अपराध किया था? नारद जी के मन में मोह होना आश्चर्य की बात है।’’

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तब महादेव बोले, ‘‘न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्री रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है।’’ इसके बाद शिवजी ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है :
हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही गंगा जी बहती थीं। एक बार वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देख कर नारद जी को अत्यंत सुहाना लगा तथा उनकी भगवान के चरणों में समाधि लग गई। नारद जी की तपोमयी स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गए। तब उनकी तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र ने कामदेव को भेजा परन्तु जब कामदेव की कोई कला मुनि पर असर न कर सकी तो वह अपने ही नाश के भय से डर गया।

नारद जी के मन में अहंकार हो गया कि उन्होंने कामदेव को भी जीत लिया है। नारद जी तब शिवजी के पास गए और जब यह बात बताई तो उन्होंने कहा, ‘‘हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूं कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, भगवान श्री हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तब भी इसे छिपा जाना।’’

नारद जी को भगवान शिव की यह शिक्षा अच्छी न लगी। वह हरि गुणगान करते हुए क्षीर सागर में भगवान लक्ष्मी नारायण के पास जा पहुंचे। भगवान उठकर नारद जी के साथ आसन पर बैठ कर बोले, ‘‘हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों बाद यहां पधारने की दया की।’’

शिव जी के मना करने के बावजूद नारद जी ने कामदेव का सारा वृत्तांत भगवान लक्ष्मी नारायण को कह सुनाया। सब सुनकर भगवान ने विचार किया कि नारद जी के मन में गर्व का भारी वृक्ष उग आया है। उन्होंने नारद जी के अहंकार को मिटाने का निश्चय किया। जब नारद जी भगवान के चरणों में प्रणाम करके वहां से चले तो उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित करके वैकुंठ जैसे वैभव वाले सौ योजन के एक नगर की रचना की।

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उस नगर के राजा शीलनिधि की अत्यंत रूपवती कन्या अपना स्वयंवर करना चाहती थी। नारद जी उस नगर में गए और नगरवासियों से सब हाल पूछ कर वह राजा के महल में जा पहुंचे।

राजा ने पूजा करके मुनि को आसन पर बैठाने के बाद राजकुमारी को बुलाया और नारद जी से कहा, ‘‘हे नाथ! आप अपने हृदय में विचार कर इसके सब गुण-दोष कहिए।’’

उसका रूप देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और अपने आपको भी भूल कर बड़ी देर तक हर्षित हो उसे देखते ही रह गए। सोच-विचार कर वह उपाय करने लगे जिससे यह कन्या उन्हें ही वरे और यह विचार करके कि श्री हरि के समान मेरा हितैषी अन्य कोई नहीं वह तुरंत वैकुंठ पहुंचे व प्रभु से अपनी व्यथा व्यक्त कर बोले, ‘‘आप मुझे अपना रूप दीजिए। तभी मैं उस कन्या को पा सकता हूं’।’’

तब प्रभु बोले, ‘‘हे नारद! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं।’’ भगवान की माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वह भगवान की स्पष्ट वाणी को भी न समझ सके।

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नारद जी तुरंत वहां गए जहां स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी। राजा लोग खूब सज-धज कर अपने-अपने आसन पर बैठे थे। नारद जी मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी।

राजकन्या ने जब नारद जी का वानर का सा मुंह और भयंकर शरीर देखा तो उसके हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया।

कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहां जा पहुंचे और राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। वहां आए शिव जी के दो गणों ने नारद जी से जल में अपना मुंह देखने के लिए कहा और उनका उपहास उड़ाने लगे।

वास्तविकता जान कर नारद जी अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने दोनों शिवगणों को कठोर श्राप दिया तथा मन में क्रोध लेकर कमलापति भगवान के पास जाने लगे तो भगवान उन्हें रास्ते में ही मिल गए।

मुनि क्रोधपूर्वक भगवान से बोले, ‘‘आप दूसरों की संपदा नहीं देख सकते, आप में ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय आपने शिव जी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया।’’

‘‘जिस शरीर को धारण करके आपने मुझे ठगा है, आप भी वही शरीर धारण करें, यह मेरा श्राप है। आपने हमारा रूप वानर सा बना दिया था, इससे वानर ही आपकी सहायता करेंगे। मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर आपने मेरा बड़ा अहित किया है, इसलिए आप भी स्त्री के वियोग में दु:खी होंगे।’’

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श्राप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए नारद जी से कृपा निधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली। जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहां न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यंत भयभीत होकर श्री हरि के चरण पकड़ लिए व कहा, ‘‘हे शरणागत के दु:खों को हरने वाले! रक्षा करें। मेरा श्राप मिथ्या हो जाए।’’

तब भगवान ने कहा, ‘‘यह सब मेरी ही इच्छा से हुआ है।’’  मुनि ने कहा, ‘‘मैंने आपको अनेक कटु वचन कहे हैं। मेरे पाप कैसे मिटेंगे?’’

तब भगवान ने नारद जी से कहा, ‘‘जाकर भगवान शंकर जी के शतनाम का जप करें, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिव जी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना। हे मुनि ! शिव जी जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके पृथ्वी पर जाकर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी। श्री राम जय राम जय जय राम।’’      

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