पढ़ें, मरते दम तक अंग्रेजों के हाथ न आने वाले अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी की महान दास्तां

Edited By Prachi Sharma,Updated: 10 Dec, 2023 10:23 AM

prafulla chaki

फुल्ल चाकी ऐसे महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने जीवन की आहुति स्वतंत्रता संघर्ष के यज्ञ में हंसते-हंसते दे दी। उनका जन्म 10 दिसम्बर, 1888 को उत्तरी बंगाल के

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Prafulla chaki Birth Anniversary: प्रफुल्ल चाकी ऐसे महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने जीवन की आहुति स्वतंत्रता संघर्ष के यज्ञ में हंसते-हंसते दे दी। उनका जन्म 10 दिसम्बर, 1888 को उत्तरी बंगाल के बोगरा जिला (अब बंगलादेश में) के बिहारी गांव में हुआ। वह 2 साल के थे तो पिता राजनारायण चाकी का निधन हो गया। माता स्वर्णोमयी देवी ने इनका पालन-पोषण अत्यंत कठिनाई से किया। 

विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय क्रांतिकारी संगठनों से हुआ। वह स्वामी विवेकानंद के साहित्य से भी बहुत प्रभावित थे। इसी बीच 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ जिसके विरोध में लोग उठ खड़े हुए। विद्यार्थियों ने भी इस आंदोलन में आगे बढ़कर भाग लिया। कक्षा 9 के छात्र प्रफुल्ल ईस्ट बंगाल कानून तोड़ने वाले छात्र प्रदर्शन में भाग लेने के लिए रंगपुर जिला स्कूल से निकाल दिए गए। इसके बाद क्रांतिकारी बारीद्र घोष उन्हें कलकत्ता ले आए, जहां इनका सम्पर्क क्रांतिकारियों की ‘युगांतर’ पार्टी से हो गया। क्रांतिकारियों को अपमानित करने के लिए कुख्यात कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को क्रांतिकारियों ने जान से मार डालने का निर्णय लिया, तो यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। दोनों क्रांतिकारी इस उद्देश्य से मुजफ्फरपुर पहुंचे, जहां किंग्सफोर्ड को सैशन जज बनाकर भेज दिया गया था। उन्होंने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया और 30 अप्रैल, 1908 को उसकी बग्घी पर बम फैंका लेकिन वह उसमें सवार नहीं था। उसकी जगह दो अंग्रेज महिलाएं मारी गईं।

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जब प्रफुल्ल और खुदीराम को यह बात पता चली कि किंग्स्फोर्ड बच गया और उसकी जगह गलती से दो महिलाएं मारी गई हैं तो वे दोनों दुखी और निराश हुए। खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर में पकड़े गए और उन्हें इसी मामले में 11 अगस्त, 1908 को फांसी हो गई। उधर प्रफुल्ल चाकी ने समस्तीपुर पहुंच कर कपड़े बदले और ट्रेन में बैठ गए। उसी डिब्बे में पुलिस सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी बैठा था, जिसे इन पर शक हो गया और उसने इसकी सूचना आगे दे दी। जब इसका अहसास प्रफुल्ल को हुआ तो वह मोकामा रेलवे स्टेशन पर उतर गए पर तब तक पुलिस ने पूरे मोकामा स्टेशन को घेर लिया था।

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1 मई, 1908 की सुबह मोकामा में रेलवे की एक पुलिया पर दोनों ओर से दनादन गोलियां चल रही थीं। लगभग अढ़ाई घंटे तक बहादुर जांबाज ने खुद को चारों ओर से घिरा जानकर भी न तो अपने कदम पीछे खींचे और न ही आत्मसमर्पण किया। जब उन्होंने देखा कि आखिरी गोली बची है तो उन्होंने मां भारती को नमन किया, आखिरी गोली को चूमा और उससे अपने ही सर को निशाना बना कर रिवाल्वर चला दी। अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गए और वहां मौजूद लोगों के मुंह खुले के खुले रह गए। जब गोलियों की आवाज आनी बंद हुई तो लोगों ने देखा कि पुलिया के उत्तरी भाग में एक 20-21 साल का लड़का लहूलुहान गिरा पड़ा है और अंग्रेज पुलिस उसे चारों ओर से घेरे हुए हैं। 

बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। चाकी का बलिदान जाने कितने ही युवकों की प्रेरणा बना और उसी राह पर चलकर अनगिनत युवाओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर खुद को होम कर दिया।

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