Shaheed Diwas: इन ‘बिगड़े’ दिमागों में घनी खुशबू के लच्छे हैं...

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 Mar, 2024 08:09 AM

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23 मार्च का दिन भारत में ‘शहीद दिवस’ के नाम से मनाया जाता है। 1931 में इसी दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने लाहौर की सैंट्रल जेल में फांसी के फंदे को मुस्कुराते हुए चूम लिया था। जब ये तीनों नौजवान अपनी-अपनी बैरक से

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Shaheed Diwas 2024: 23 मार्च का दिन भारत में ‘शहीद दिवस’ के नाम से मनाया जाता है। 1931 में इसी दिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने लाहौर की सैंट्रल जेल में फांसी के फंदे को मुस्कुराते हुए चूम लिया था। जब ये तीनों नौजवान अपनी-अपनी बैरक से ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का उद्घोष करते हुए फांसी के तख्ते के निकट पहुंचे तो वहां उपस्थित अधिकारियों ने इन पर कटाक्ष किया। किसी ने कहा कि इनका दिमाग बिगड़ा हुआ है तो दूसरा बोला ये पागल हैं। मरहूम स्वतंत्रता सेनानी प्रो. तिलक राज चड्ढा के अनुसार सुखदेव थापर ने एक शेर पढ़ा-

इन ‘बिगड़े’ दिमागों में घनी खुशबू के लच्छे हैं, हमें ‘पागल’ ही रहने दो हम पागल ही अच्छे हैं।

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इस समय इन तीनों की आयु 22-23 वर्ष की थी। ये तीनों युवक ‘नौजवान भारत सभा’ के सदस्य थे। भगत सिंह और सुखदेव नैशनल कालेज लाहौर के विद्यार्थी थे, राजगुरु महाराष्ट्र प्रांत का एक सुदृढ़ क्रांतिकारी था। इन्होंने उस समय ब्रिटिश प्रशासन को हिलाकर रख दिया, जब दिन दिहाड़े जे.पी. सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लिया।

बाद में 8 अप्रैल, 1929 के दिन भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त ने केंद्रीय विधानसभा दिल्ली में दो बम और कुछ पर्चे फैंके। पर्चों में लिखा था कि ये बम अंग्रेजों के बहरे कानों तक भारतीयों की आवाज पहुंचाने के लिए फैंके गए हैं। उनकी गिरफ्तारियां हुईं और ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ के नाम से मुकद्दमा चला। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई तथा 23 मार्च, 1931 को सायं 7.30 बजे ये तीनों शहीद हो गए।

ऐसे लोग कभी मरते नहीं, वे तो सदैव अमर हैं परंतु आज भी भगत सिंह के कई ऐसे विचार हैं, जिनसे बहुत लोग वाकिफ नहीं हैं। इन विचारों से भगत सिंह की आज भी प्रासंगिकता का ज्ञान होता है। उनकी पहली सोच है अछूतों के प्रति उसका प्रेम और उनके अधिकारों की लड़ाई। उन्होंने 1923 में काकीनाडा के वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन के बाद ‘अछूत-समस्या’ के नाम से एक मार्मिक लेख लिखा, जिससे पता चलता है कि 16-17 साल की आयु में भगत सिंह अछूतों की समस्या को कितनी अच्छी तरह से समझते थे और उनके कितने पक्षधर थे। उन्होंने लिखा कि 20वीं सदी में छुआछूत की बात सुनते ही उन्हें शर्म आती है। भगत सिंह ने अछूतों का आह्वान किया कि ‘संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दो’। भगत सिंह के जीवन का दूसरा पहलू था भाषा का ज्ञान। वह सोचते थे कि एक अच्छे साहित्य के लिए अच्छी भाषा का होना आवश्यक है।

वह कहते थे कि फ्रांस की क्रांति कभी नहीं आती, यदि रूसो और वोल्टायर जैसे लेखकों ने अपनी जोरदार लेखनी से क्रांति का आह्वान न किया होता। इसी प्रकार मैक्सिम गोर्की और टालस्टॉय के लेख भी रूसी क्रांति का सूत्रधार बने। भगत सिंह की सोच थी कि भारत में रहने वाले सब लोगों को बराबर अधिकार मिलें, सामाजिक और आर्थिक विषमताएं दूर हों परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। निर्धन और निर्धन हो गए। जाति, धर्म और भाषा को लेकर आज भी दंगे होते हैं। जरा सोचें कि भगत सिंह के स्वप्न क्या थे, उनकी सोच क्या थी।

समय आ गया है कि हम सब भारतवासी एकजुट होकर भगत सिंह की उस सोच और स्वप्नों को साकार करें। यही उस महान शहीद के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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