Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Aug, 2025 02:00 PM

Shree Ghushmeshwar Mahadev Jyotirling: भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंग देश के अलग-अलग भागों में स्थित हैं। इन्हें द्वादश ज्योर्तिलिंग के नाम से जाना जाता है। इन ज्योर्तिलिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप समाप्त हो...
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Shree Ghushmeshwar Mahadev Jyotirling: भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंग देश के अलग-अलग भागों में स्थित हैं। इन्हें द्वादश ज्योर्तिलिंग के नाम से जाना जाता है। इन ज्योर्तिलिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप समाप्त हो जाते हैं। वे भगवान शिव की कृपा के पात्र बनते हैं। ऐसे कल्याणकारी ज्योर्तिलिंगों में श्री घुश्मेश्वर ज्योर्तिलिंग एक प्रमुख ज्योर्तिलिंग माना जाता है। द्वादश ज्योर्तिलिंगों में यह अंतिम ज्योर्तिलिंग है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मील दूर वेरुल गांव के पास स्थित है।
Shri Ghushmeshwar Jyotirlinga Katha श्री घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा- दक्षिण देश में देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ठ ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था। दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया। पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जंची लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान शिव की अनन्य भक्त थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।

भगवान शिव जी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुन्दर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों की ही आनंद की सीमा न रही। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है।
अब तक सुदेहा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। अंतत: एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला और उसके शव को ले जाकर उसी तालाब में फैंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फैंका करती थी।

सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कोहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों फूट-फूटकर रोने लगे लेकिन घुश्मा नित्य की भांति भगवान शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखाई पड़ा।
वह सदा की भांति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा। जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान शिव भी वहां प्रकट होकर घुश्मा से वर मांगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घिनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान शिव से कहा, ‘प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किन्तु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।’
भगवान शिव ने उसकी ये दोनों प्रार्थनाएं स्वीकार कर लीं। ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहां घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर ज्योर्तिलिंग की महिमा पुराणों में बहुत विस्तार से वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदायी है।
