Srimad Bhagavad Gita: परमेश्वर सदैव पाप-पुण्य से अविचलित रहता है

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 26 Oct, 2023 07:42 AM

srimad bhagavad gita

अनुवाद एवं तात्पर्य: परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को किन्तु सारे देहधारी जीव अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को अच्छादित

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नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:॥5.15॥

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अनुवाद एवं तात्पर्य: परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को किन्तु सारे देहधारी जीव अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को अच्छादित किए रहता है। विभु का अर्थ है परमेश्वर, जो असीम ज्ञान, धन, बल, यश, सौंदर्य तथा त्याग से युक्त है। वह सदैव आत्मतृप्त और पाप-पुण्य से अविचलित रहता है।

वह किसी भी जीव के लिए विशिष्ट परिस्थिति नहीं उत्पन्न करता अपितु जीव अज्ञान से मोहित होकर जीवन की ऐसी परिस्थिति की कामना करता है, जिसके कारण कर्म तथा फल की शृंखला आरंभ होती है। जीव पराप्रकृति के कारण ज्ञान से पूर्ण है तो भी वह अपनी सीमित शक्ति के कारण अज्ञान के वशीभूत हो जाता है। भगवान सर्वशक्तिमान है किन्तु जीव नहीं है। भगवान विभु अर्थात सर्वज्ञ है किन्तु जीव अणु है, जीवात्मा में इच्छा करने की शक्ति है। ऐसी इच्छा की पूर्ति सर्वशक्तिमान भगवान द्वारा ही की जाती है किन्तु किसी परिस्थिति विशेष में इच्छित कर्मों तथा फलों के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

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भगवान निष्पक्ष होने के कारण स्वतंत्र अणुजीवों की इच्छाओं में व्यवधान नहीं डालता किन्तु जब कोई कृष्ण की इच्छा करता है तो भगवान उसकी विशेष चिंता करते हैं और उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते हैं कि भगवान को प्राप्त करने की उसकी इच्छा पूरी हो और वह सदैव सुखी रहे। भगवान जीव को शुभ कर्मों में इसलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह ऊपर उठे।

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