सैनिकों की आलोचना करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं

Edited By ,Updated: 24 May, 2025 05:12 AM

criticizing the soldiers is not appropriate in any way

अक्सर नागरिकों की ओर से सेना, सैनिकों और उनके द्वारा की गई सैन्य कार्रवाई पर नेताओं से लेकर सामान्य व्यक्ति तक आलोचना करता रहता है। कुछ भी टिप्पणी करने से पहले यह समझना जरूरी है कि भारत की सैन्य व्यवस्था का संचालन कैसे होता है और कौन करता है। सैन्य...

अक्सर नागरिकों की ओर से सेना, सैनिकों और उनके द्वारा की गई सैन्य कार्रवाई पर नेताओं से लेकर सामान्य व्यक्ति तक आलोचना करता रहता है। कुछ भी टिप्पणी करने से पहले यह समझना जरूरी है कि भारत की सैन्य व्यवस्था का संचालन कैसे होता है और कौन करता है।
सैन्य व्यवस्था:स्वतंत्रता मिलने से पहले भारतीय सेना का गठन ब्रिटिश हुकूमत द्वारा देशवासियों को दबाने और उन पर अत्याचार कर उन्हें हमेशा गुलाम बनाए रखने के लिए किया गया था। सेना प्रमुख की हैसियत गवर्नर जनरल के बाद थी और वह सभी तरह के फैसलों में प्रमुख भूमिका निभाता था। अधिकारियों में भारतीय भी थे और जब आजाद हुए तो उनकी मानसिकता में भी बदलाव आया। प्रधानमंत्री नेहरू ने इस दिशा में सबसे पहला काम यह किया कि सेना को राजतंत्र से बाहर निकाला और देश के रक्षा मंत्रालय के अधीन कर दिया। इससे हुआ यह कि सेना कमांडरों की देश की सुरक्षा के अतिरिक्त अन्य कोई जिम्मेदारी नहीं थी। प्रशासनिक व्यवस्था में उनका दखल नहीं था और वे किसी भी प्रकार की नीति निर्धारण के लिए सरकार पर आश्रित थे। मंत्रालयों के सचिव किसी भी योजना की जांच-परख कर मंत्रियों के पास भेजते थे और स्वीकृति मिलने के बाद उस पर अमल किया जाता था।

देखा जाए तो यह व्यवस्था का पहला चरण था जो 1947 से 1962 तक चला। चीन से युद्ध की चुनौती सामने आई और हम पराजित हुए तो लगा कि कहीं न कहीं कुछ ऐसा है जिसे अगर समझा और बदला नहीं गया तो देश सैन्य ताकत में पीछे रह जाएगा और यह झटका लगा कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा कितना खोखला था। 1957 से 1962 तक तब के रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन की राजनीतिक सोच की भी आलोचना हुई और उन्हें इस पराजय के लिए जिम्मेदार माना गया। पंडित नेहरू के सबसे विश्वस्त और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले मेनन ने इस अवधि में अपने हथियारों को समय के हिसाब से तैयार करने में भूल की और शत्रु ने मित्रता की आड़ में इसका लाभ उठाकर हमारी जमीन पर इस तरह कब्जा किया कि वह जब चाहे भारत पर हमला कर सकता है क्योंकि उसके सैन्य ठिकाने ऊपर हैं, मतलब वह हम पर हमेशा निगरानी कर सकता है। नेहरू जी चीन से युद्ध के बाद 20 महीने जीवित रहे और उन्होंने इस दौरान खुद को हार का जिम्मेदार समझते हुए,भारत की सैन्य शक्ति का विस्तार करने की योजना बनाई। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने भारत की सशस्त्र सेनाओं के आधुनिकीकरण पर ध्यान नहीं दिया। उनकी सोच थी कि दूसरे विश्व युद्ध की भयानक तस्वीर देखकर कोई भी देश अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों को युद्ध के जरिए सुलझाने की कोशिश नहीं करेगा। 

कहा जाता है कि उन्हें चीन के विश्वासघात से गहरा आघात लगा जो उनकी मृत्यु का कारण बना। परंतु अक्साई चिन का मामला आज तक नासूर बनकर रिसता रहता है। जून 2020 में गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प ने दोनों देशों के बीच रिश्तों को चौपट करने का काम किया।

सेना की प्रतिष्ठा : सन् 1963 से 1998 का दौर सेना और नागरिकों के संबंधों का दूसरा चरण कहा जा सकता है। लाल बहादुर शास्त्री ने सैनिक मामलों पर सामान्य जनता से संवाद करने के लिए ‘जय जवान’ का उद्घोष किया। 1965 के पाकिस्तान के साथ युद्ध में जीत मिलने का कारण हमारी सैन्य क्षमता थी लेकिन उससे अधिक भारतीयों ने एकजुटता और साहस का परिचय दिया। सरकार ने नागरिकों और सैनिकों के बीच जो दूरी बन गई थी, उसे कम करने के प्रयास किए और अपनी कमियों को सुधारने में लग गई। सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें आधुनिक हथियारों से लैस किया और युद्ध की नई तकनीक से परिचित कराया।  हमने अमरीका और रूस दोनों से युद्ध के शस्त्र और तकनीक लेने की बात की और नेहरू के गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को छोडऩे में भलाई समझी और सैन्य शक्ति और सैन्य नेतृत्व के लिए सभी देशों से मदद लेना शुरू किया।

इस व्यवस्था का तीसरा चरण 1999 से 2019 का कहा जा सकता है जिसकी शुरूआत कारगिल युद्ध से हुई थी। सेना का पुनर्गठन हुआ और चीफ  ऑफ डिफैंस स्टाफ  का एक नया पद बनाया गया। अभी तक सामान्य नागरिक सैनिक गतिविधियों को लेकर अधिक ध्यान नहीं देते थे यद्यपि सेना के कार्यकुशल होने पर किसी को संदेह नहीं होता था लेकिन कुछ विपक्षी दल और उनके लोकप्रिय नेताओं की तरफ से विवादास्पद बयान आने लगे जिस पर केंद्र सरकार को चिंता होनी स्वाभाविक थी। शस्त्रों का परिचालन आसान नहीं होता लेकिन उनका व्यवहार ऐसा होता है कि जैसे इन्हें चलाना कोई बड़ी बात नहीं। इतनी सक्षम सेना के बारे में जब कोई नेता उन्हें अपमानित करने के इरादे से कुछ कहता है तो सैनिक टिप्पणी नहीं करते बल्कि सामान्य व्यक्ति उन्हें आईना दिखाने लगता है। कुछ नेता जब सैनिक कार्रवाइयों के सबूत मांगते हैं तब उनके अपने ही दल के लोग उनकी आलोचना करते दिखाई देते हैं। इन सब अनर्गल बातों का सेना के व्यवहार पर कोई असर नहीं पड़ता।

जो सैनिक रहे हैं या जिनके परिवार में से कोई व्यक्ति शहीद हुआ है वे समझ सकते हैं कि एक सैनिक बनना क्या होता है? अपनी जान की कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना होता है ताकि सामान्य लोगों को बचाया जा सके और सुरक्षित माहौल बनाया जा सके। सेना की अग्रणी पंक्ति में अमरीका, रूस, चीन के बाद हमारी सैन्य शक्ति है और हमारे सैनिकों ने सिद्ध किया है कि हम अपने इरादों में हमेशा सफल रहे। उनकी प्रशंसा के स्थान पर आलोचना करना उचित नहीं है।-पूरन चंद सरीन 
 

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