‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’

Edited By ,Updated: 04 Feb, 2023 04:05 AM

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भारतीय संत परंपरा में कई बहूमूल्य कीमती संत हुए, लेकिन भारतीय क्षितिज पर जिस तरह से संत रविदास चमकते हैं उस तरह की चमक किसी और में खोजना मुश्किल है। संत रविदास के बारे में कई अनूठी बातें हैं।

भारतीय संत परंपरा में कई बहूमूल्य कीमती संत हुए, लेकिन भारतीय क्षितिज पर जिस तरह से संत रविदास चमकते हैं उस तरह की चमक किसी और में खोजना मुश्किल है। संत रविदास के बारे में कई अनूठी बातें हैं। जिस समय वह रहे हैं उस समय को जरा आप याद करिए। उस समय की जाति प्रथा के रोग को समझने की कोशिश करिए। संत रविदास के आगे अगर अपने को ब्रह्मज्ञानी कहने वाले लोग झुकते हैं। अगर उस समय का ब्राह्मण समाज उनकी तारीफ करता है, वह भी काशी का ब्राह्मण समाज जो उन्हें नमन करता है तो स्वाभाविक है कि आप मान सकते हैं कि संत रविदास में कितनी चमक और उनकी भक्ति की कितनी धमक रही होगी। 

संत रविदास अपने जमाने में कई कीमती और महत्वपूर्ण बदलाव की बात करते हैं। हम सभी जानते हैं कि भगवान तक पहुंचने के कई रास्ते हैं। आप ध्यान से पहुंचिए, भक्ति से पहुंचिए। मीरा नृत्य करते-करते पहुंच जाती हैं तो शंकर ज्ञान का रास्ता चुनते हैं। संत रविदास की भक्ति का रास्ता कुछ इस तरह से समझ में आता है कि लगता है यह रास्ता हमारा है। सरल, सुगम और आसानी से चलने वाला रास्ता। उनकी भक्ति सहज और सरल रास्ते से होकर गुजरती है। आप सोचिए कि कोई भक्त अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के काम करता हुआ दिखाई दे रहा है और वह ठीक उसी समय अपने प्रभु को पाने के रास्ते पर भी चल पड़ा है। रैदास ऐसा नहीं कहते हैं कि कोई व्यक्ति अपना काम-धाम छोड़कर भक्ति में लीन हो जाए। वहअपना जूता सिलने का काम करते रहते हैं और भक्ति भी करते रहते हैं। 

ठीक उसी तरह जिस तरह से उनके गुरु भाई कबीर अपने जुलाहे का काम करते हुए अपनी भक्ति जारी रखते हैं। कबीर और रैदास दोनों गुरुभाई थे। ये दोनों संत रामानंद जी के शिष्य थे। संत रैदास और कबीर दोनों ही कर्मकांड में किसी भी तरह के आडम्बर के विरोधी थे। जिस तरह कबीर अपने कर्म में ही भक्ति शामिल करते हैं, उसी तरह से रैदास भी अपना काम करते हुए प्रभु को याद करते रहते हैं। संत रैदास जी का जूता बनाना और भक्ति करते रहना कई तरह के प्रतीक स्थापित करता है। उनकी इस तस्वीर से यह साफ हो जाता है कि भगवान के लिए किसी भी तरह के आडंबर की जरूरत नहीं है। उसे साधारण ढंग से अति सहज तरीके से भी पाया जा सकता है। उनकी साधना के उदाहरण से यह भी साफ जाहिर है कि हम यह नहीं कह सकते हैं कि हमें साधना के लिए भगवान के लिए अलग से समय चाहिए। तुम जो कर रहे हो उसी समय तुम पात्र हो ईश्वर को पाने के लिए। 

उनकी साधना से यह रास्ता दिखता है कि जो व्यक्ति जूता बनाते समय ईश्वर मेें लीन है वह इस कार्य को भी भगवान को समर्पित कर रहा है। जो व्यक्ति कपड़ा बुनता हुआ भी ईश्वर को याद करता है वह अपना कार्य उत्कृष्ट तो करेगा ही इसके साथ ही दुनिया की तमाम मोह-माया से भी खुद ही अलग हो जाएगा। संत रविदास की अगर आप परपंरा देखें तो उसमें आपको एक अलग तरह का वैभव दिखाई पड़ता है। वह संत रामानंद जी के शिष्य थे। रामानंद जी ने जिस व्यक्ति को अपना शिष्य स्वीकार किया होगा वह व्यक्ति साधारण नहीं हो सकता। इसके साथ ही वह और कबीर गुरु भाई थे। हमारे बुंदेलखंड में कहावत है कि फल से वृक्ष को पहचाना जाता है, पुत्र से पिता को और शिष्य से गुरु को। जिसकी शिष्य मीरा हों सिर्फ इतना ही वक्तव्य ही संत रविदास को अति महत्वपूर्ण बना देता है। संत रैदास की भाषा प्रेम की भाषा है। भक्ति की भाषा है। 

एक दिन संत रैदास (रविदास) अपनी झोंपड़ी में बैठे प्रभु का स्मरण कर रहे थे। तभी एक राहगीर ब्राह्मण उनके पास अपना जूता ठीक कराने आया! रैदास ने पूछा कहां जा रहे हैं, ब्राह्मण बोला गंगा स्नान करने जा रहा हूं। जूता ठीक करने के बाद ब्राह्मण द्वारा दी मुद्रा को रैदासजी ने कहा कि आप यह मुद्रा मेरी तरफ से मां गंगा को चढ़ा देना। ब्राह्मण जब गंगा पहुंचा और गंगा स्नान के बाद जैसे ही ब्राह्मण ने कहा- हे गंगे रैदास की मुद्रा स्वीकार करो, तभी गंगा से एक हाथ आया और उस मुद्रा को लेकर बदले में ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे गया। 

ब्राह्मण जब गंगा का दिया कंगन लेकर वापस लौट रहा था, तब उसके मन में विचार आया कि रैदास को कैसे पता चलेगा कि गंगा ने बदले में कंगन दिया है, मैं इस कंगन को राजा को दे देता हूं, जिसके बदले मुझे उपहार मिलेंगे। उसने राजा को कंगन दिया, बदले में उपहार लेकर घर चला गया। जब राजा ने वह कंगन रानी को दिया तो रानी खुश हो गई और बोली मुझे ऐसा ही एक और कंगन दूसरे हाथ के लिए चाहिए। राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर कहा वैसा ही कंगन एक और चाहिए, अन्यथा राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा। ब्राह्मण परेशान हो गया कि दूसरा कंगन कहां से लाऊं? डरा हुआ ब्राह्मण संत रविदास के पास पहुंचा और सारी बात बताई। रैदासजी बोले कि तुमने मुझे बिना बताए राजा को कंगन भेंट कर दिया, इससे परेशान न हो। तुम्हारे प्राण बचाने के लिए मैं गंगा से दूसरे कंगन के लिए प्रार्थना करता हूं। 

ऐसा कहते ही रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई, जिसमें वह चमड़ा गलाते थे, उसमें पानी भरा था। रैदास जी ने मां गंगा का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का, जल छिड़कते ही कठौती में एक वैसा ही कंगन प्रकट हो गया। रैदासजी ने वह कंगन ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया। तभी से यह कहावत प्रचलित हुई कि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’।-प्रह्लाद सिंह पटेल(केंद्रीय राज्य मंत्री)

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