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अब विपक्ष 2024 के साथ-साथ दीर्घकालीन योजना पर सोचे

Edited By ,Updated: 05 Dec, 2023 05:30 AM

now the opposition should think about long term planning along with 2024

5 राज्यों में चुनाव के नतीजे आ गए हैं। 3 राज्य जीतकर भाजपा ने उम्मीद से कहीं बढ़कर प्रदर्शन किया है। इसके साथ ही पूरी मुख्य ङ्क्षहदी पट्टी से कांग्रेस गायब हो गई है। बस उत्तर में हिमाचल प्रदेश में उसकी उपस्थिति रह गई है। 5 राज्यों के इन चुनावों में...

5 राज्यों में चुनाव के नतीजे आ गए हैं। 3 राज्य जीतकर भाजपा ने उम्मीद से कहीं बढ़कर प्रदर्शन किया है। इसके साथ ही पूरी मुख्य ङ्क्षहदी पट्टी से कांग्रेस गायब हो गई है। बस उत्तर में हिमाचल प्रदेश में उसकी उपस्थिति रह गई है। 5 राज्यों के इन चुनावों में तेलंगाना में बी.आर.एस. और मिजोरम के जोरम पीपुल्स मूवमैंट व मिजो नैशनल फ्रंट को छोड़ दें तो और किसी क्षेत्रीय दल के लिए कुछ कर दिखाने का खास मौका नहीं था। जिन 3 राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सीधी लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच थी, वहां भाजपा  कांग्रेस पर बहुत भारी पड़ी। 

नतीजे विपक्ष को निराश करने वाले जरूर हैं मगर ये उसकी उम्मीदों को खत्म करने वाले नहीं हैं। विपक्ष के लिए ये नतीजे कई संदेश लेकर आए हैं। यह स्पष्ट है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस मात ने विपक्ष के सारे समीकरण बिगाड़ दिए हैं। इसके साथ साफ हो गया है कि जीत हवाई रणनीतियों से नहीं मिलने वाली। इसके लिए जमीन पर ठोस काम करना होगा। अब आप जरा यह सोचिए कि मोदी या भाजपा को रोकने के लिए विपक्ष ने किया क्या या क्या रणनीति अपनाई। बहुत साफ तो यह नजर आता है कि विपक्ष ने सीधे नरेंद्र मोदी पर हमले किए, नीतिगत कम, व्यक्तिगत ज्यादा। अडानी का मामला लगातार उछाला गया, पक्के सबूत नहीं थे तो भी। मोदी सरकार की विफलताओं को समग्र तरीके से नहीं घेरा गया। कभी महंगाई- बेरोजगारी की बात की गई , सीधी और लगातार लड़ाई नहीं लड़ी गई। नफरत की दुकान ज्यादातर हवा में चलाई गई और यह दुकान भी कभी-कभी ही खोली गई। 

किसी भी दुकान के खोलने का वक्त ही न हो, कैसे चलेगी। सीमा पर घेरने के नाम पर सेना को घेरा गया। राज्यों में जिन योजनाओं को कहा गया, लागू करने में देरी की गई और जहां कुछ किया भी गया, बाद में कह दिया गया कि अब विकास के लिए पैसा नहीं है (कर्नाटक में उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने ऐसे बयान कई बार सार्वजनिक रूप से दिए)। अगर राजस्थान की बात करें तो कांग्रेस ने इस बार 39.53 फीसदी वोट शेयर हासिल किया है, जबकि 2018 के चुनाव में उसने 39.3 फीसदी वोट शेयर हासिल किया था। इस तरह कांग्रेस ने इस चुनाव में मुश्किल से 0.2 फीसदी नए लोगों को ही इस चुनाव में अपने साथ जोड़ा। दूसरी ओर भाजपा को राजस्थान में इस बार 41.69 फीसदी वोट शेयर मिला है और सरकार बनाने के लिए बहुमत भी। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 38.77 फीसदी वोट मिले थे और सत्ता उसके हाथ से निकल गई थी। भाजपा ने इस बार करीब 3 फीसदी नए वोट अपने साथ जोड़े और सत्ता की कुर्सी तक पहुंच गई। इसी तरह मध्य प्रदेश में कांग्रेस को इस बार 40.4 फीसदी वोट शेयर मिला है, जबकि पिछले चुनाव में उसे 40.9 फीसदी वोट मिले थे। इस तरह उसने नए वोट तो नहीं जोड़े, बल्कि आधा फीसदी वोट गंवा दिए। 

ऐसी ही कहानी छत्तीसगढ़ की है, वहां भी कांग्रेस की जमीन नहीं खिसकी है मगर उसने नए लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ा। पिछले चुनाव में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने 43 फीसदी वोट प्राप्त किए थे, इस बार 0.7 फीसदी की मामूली गिरावट के साथ उसका वोट शेयर 42.23 फीसदी रहा। इसके विपरीत भाजपा ने नए वोटरों को अपने साथ जोडऩे के लिए जमीन पर काफी ज्यादा मेहनत की और 13 फीसदी नए मतदाताओं का साथ प्राप्त किया। कांग्रेस को और समूचे विपक्ष को इस पर मिलकर विचार करने की जरूरत है कि उनके साथ नए मतदाता उस तेजी से क्यों नहीं जुड़ पा रहे हैं, जिस तेजी से वे भाजपा के साथ जुड़ रहे हैं। दूसरा उन्हें यह भी देखना होगा कि नए मतदाताओं का विश्वास हासिल करने के लिए क्या-क्या करना है। आप सिर्फ चुनावी घोषणाओं के भरोसे नहीं रह सकते। जो रेवडिय़ां आप बांटने के वायदे करेंगे, तो भाजपा भी तुरंत उस विचार को लपक लेगी और उससे ज्यादा रेवडिय़ों की न सिर्फ घोषणा कर देगी, बल्कि मतदाताओं के खाते में पहुंचने का सिलसिला भी शुरू हो जाएगा इसलिए मजबूत और कारगर रणनीति सिर्फ चुनावी वायदों के भरोसे नहीं बन सकती। 

कांग्रेस को गठबंधन की राजनीति में प्रवेश करने से पहले यह भी ठीक तरह से समझ लेना चाहिए कि कौन भरोसे के लायक है। दोहरा खेल खेल रहे दलों की ठीक चुनाव के मौके पर गतिविधियों से उसे बड़ा नुकसान हो सकता है, या कम से कम नए मतदाताओं को उससे जुडऩे में बाधा आ सकती है। चुनाव की तैयारियां 5 राज्यों में हो रही थीं मगर इसकी राजनीति की उलटी चालें छठे राज्य बिहार से चली जा रही थीं। दरअसल आप जब वोट की राजनीति करते हैं तो सबसे बड़ा सवाल तो यह होता है कि आप अपने परम्परागत वोट बैंक से अलग क्या करते हैं। अलग वोट बैंक को अपनी तरफ लाने के लिए क्या करते हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने देश की अस्मिता, सुरक्षा और हिंदू वोट बैंक की राजनीति से अलग पहले युवा को जोड़ा और बाद में अगड़े-पिछड़े की राजनीति में अति पिछड़ों की ऐसी राजनीति की कि लालू- नीतीश को जनगणना की राजनीति में आना पड़ा। लेकिन तब तक अति पिछड़े की राजनीति का सीमैंट भाजपा के लिए मजबूत हो चुका था।

भाजपा महिला वोट बैंक को साधने में पहले से जुटी थी। महिलाओं को लुभाने के उज्ज्वल ने अगर 2014 में कमाल किया तो बाद में 2019 में इज्जत योजना (गरीबों के लिए शौचालय योजना और मुफ्त  या सबसिडी वाली मकान योजना ) ने कमाल किया। बाद में महिलाओं को खाते में सीधे पैसे देने , जो बाद में लाडली योजना के नाम से ज्यादा चली, ने तो कमाल ही कर दिया। उधर कांग्रेस छोटे-छोटे वोट बैंक में लगी रही। पुरानी पैंशन स्कीम सबसे प्रभावी रही । लेकिन उसका आधार उतना बड़ा नहीं है जितना राज्य के वित्तीय खजाने पर बोझ। कुल मिलाकर यह समय है कि जब  कांग्रेस को सिर्फ 2024 ही नहीं उससे आगे तक के लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी कोई ठोस नीति बनानी चाहिए, चाहे वह देश में अपनी बची हुई 3 सरकारों के मामले में हो या फिर विपक्ष के बाकी दलों के साथ हो। जब तक सब कुछ पार्टी में साफ नहीं होगा, ऊहापोह तो बना ही रहेगा। दूसरे की विफलता के सहारेे या जिसे एंटी इंकम्बैंसी कहा जाता है, बहुत आगे तक नहीं जा सकते।-अकु श्रीवास्तव
 

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