‘अमीर और अमीर... गरीब और गरीब’ जुमले का सच

Edited By Updated: 29 Feb, 2024 06:39 AM

the truth of the phrase rich and rich poor and poor

1. वर्ष 1950 से 1980 दशक में हिंदी फिल्मों, राजनीतिक विमर्श और आम बोलचाल की भाषा में एक जुमला  ‘देश में अमीर और अमीर, गरीब और गरीब होता जा रहा है’ बहुत प्रचलित था। परंतु यह अब गलत बयानबाजी और अर्ध-सत्य का पर्याय बन चुका है, जिसका जमीनी हकीकत से कोई...

1. वर्ष 1950 से 1980 दशक में हिंदी फिल्मों, राजनीतिक विमर्श और आम बोलचाल की भाषा में एक जुमला  ‘देश में अमीर और अमीर, गरीब और गरीब होता जा रहा है’ बहुत प्रचलित था। परंतु यह अब गलत बयानबाजी और अर्ध-सत्य का पर्याय बन चुका है, जिसका जमीनी हकीकत से कोई लेना देना नहीं। गत दिनों सार्वजनिक हुआ ‘घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण’ इसका प्रमाण है। राष्ट्रीय सांख्यिकी सर्वेक्षण कार्यालय (एन.एस.एस.ओ.) द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति मासिक घरेलू खर्च 2011-12 की तुलना में 2022-23 में दोगुना से अधिक हो गया है। संक्षेप में कहें, तो यह समेकित समृद्धि का सूचक है। 

2. स्वतंत्र भारत में प्रशासनिक व्यवस्था आदर्श स्तर की रही है, यह दावा शायद ही कोई करे। परंतु यह भी सच है कि कोई भी दल देश में सत्तारुढ़ रहा हो, तब उन्हें लोकतांत्रिक तकाजे से जनहित में कुछ न कुछ निर्णय लेने पड़े, जिनके धरातली क्रियान्वयन में अनेकों अनियमितता होने के बाद एक सीमा तक समाज में सकारात्मक बदलाव भी नजर आया। एक शताब्दी पूर्व, अर्थात् 1920 से लेकर 1940 के दशक तक देश में गरीबी-भुखमरी उच्चतम स्तर पर थी। किसानों की स्थिति कितनी दयनीय थी, यह समकालीन साहित्य विशेषकर मुंशी प्रेमचंद की कहानी-रचनाओं से स्पष्ट है। तब सूखा, गरीबी और भुखमरी मानो, देश की नियति बन चुकी थी। इसकी तुलना में वर्तमान किसानों की स्थिति में भारी अंतर स्पष्ट रूप से दिखता है। 

3. वर्ष 1943-44 में बंगाल अकाल के बारे में पढ़कर मैं आज भी सिहर उठता हूं। तब अनाज के भीषण अकाल और आसमान छूती कीमतों से बंगाल क्षेत्र में 30 लाख से अधिक लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर गए थे। उस वक्त हालात ऐसे थे कि लोग भूख से बिलखते अपने बच्चों को नदी में फैंक रहे थे, तो न जाने कितने ही लोग ट्रेन के सामने कूदकर अपनी जान दे रहे थे। कुत्ते-गिद्ध लाशों को अपना निवाला बना रहे थे। जो बचे हुए थे, वे घास-पत्तियां खाकर जिंदा थे। तब लोगों में ब्रितानी हुकूमत की कुनीतियों के खिलाफ प्रदर्शन करने का भी दम नहीं बचा था। 

4. आज यह स्थिति किसी दु:स्वप्न जैसी है। वर्तमान पीढ़ी तो ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकती। अगस्त 1947 में अंग्रेजों के भारत छोडऩे के बाद वामपंथ प्रदत्त जो समाजवादी व्यवस्था देश में लागू हुई, उसने स्थिति (कालाबाजारी और भ्रष्टाचार सहित) को और विकराल बना दिया। 1991 में हुए आॢथक सुधारों के बाद कालांतर में भारतीय उद्योग अपने पैरों पर खड़ा होने की हिम्मत जुटा पाया। उसी साहस को मई 2014 के बाद और अधिक संबल मिला, तो गरीबी के खिलाफ राजकीय लड़ाई को नई दिशा। 

5. पिछले 10 वर्षों में तकनीक के माध्यम से यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि सभी सरकारी योजनाओं का लाभ बिना किसी भ्रष्टाचार के वास्तविक लाभाॢथयों को मिले। इस व्यवस्था को मूर्त रूप देने के लिए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2014 को ऐतिहासिक लालकिले की प्राचीर से जनधन योजना की घोषणा की, जिसका शुभारम्भ 28 अगस्त 2014 को पूरे देश में हुआ तब विरोधी दलों और स्वघोषित बुद्धिजीवी के एक वर्ग ने इसका उपहास किया। 

कहा गया कि जिनके पास जमा कराने को एक रुपए तक नहीं, उनके बैंक खाता खुलवाने का क्या अर्थ? तब से देश में लगभग 52 करोड़ जनधन बैंक खाते खोले जा चुके हैं, जिसमें मोदी सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लगभग  2.21 लाख करोड़ जमा है। मोदी सरकार पारदॢशता के साथ भीषण कोरोनाकाल से 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दे रही है। इसी प्रकार की नीतियां गरीबी के खिलाफ एक बड़ा हथियार बनकर उभरे हैं। 

6. ‘घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण’ के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों का खर्च बढ़ा है। वर्ष 2022-23 में औसत प्रति व्यक्ति मासिक घरेलू उपभोग खर्च (एम.पी.सी.ई.) ग्रामीण भारत में 3,773 और शहरी क्षेत्रों में 6,459 है, जो 2011-12 में क्रमश:1,430 और 2,630 था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार भोजन (अनाज-दाल) पर घरों का खर्चा 50 प्रतिशत से नीचे चला गया है, वहीं शहरी क्षेत्रों में भोजन पर खर्च घटकर 40 प्रतिशत से भी कम हो गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि दाल-रोटी के अतिरिक्त, ग्रामीण-शहरी क्षेत्र में लोग अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा बेहतर जीवन जीने हेतु अन्य खाद्य-पेय उत्पादों के सेवन और फ्रिज, टी.वी., चिकित्सा, परिवहन आदि सुविधाओं में व्यय कर रहे हैं। नीति आयोग ने इसी वर्ष जनवरी में जारी चर्चा पत्र में बताया था कि भारत में बहुआयामी गरीबी 2013-14 के 29.17 प्रतिशत से घटकर 2022-23 में 11.28 प्रतिशत हो गई है, अर्थात विगत 9 वर्षों में लगभग 25 करोड़ लोग गरीबी की श्रेणी से बाहर निकल गए हैं। 

7. यह आकलन केवल भारतीय इकाइयों या समितियों का ही नहीं है, अपितु ऐसा ही निष्कर्ष विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.) रूपी प्रामाणिक वैश्विक संस्थाओं का भी है। उदाहरणस्वरूप, आई.एम.एफ. ने अपने 2022 के शोधपत्र में कहा था कि भारत में बेहद गरीब लोगों की संख्या एक प्रतिशत से नीचे आ गई है। इसके लिए आई.एम.एफ. ने मोदी सरकार द्वारा संचालित लाभकारी योजनाओं, विशेषकर ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ (पी.एम.जी.के.वाई.) को श्रेय दिया था। वही नीति आयोग से पहले विश्व बैंक भी देश में गरीबी घटने पर अपनी मुहर लगा चुका था। 

8. उपरोक्त जुमला  ‘देश में अमीर और अमीर, गरीब और गरीब’ आंशिक रूप से सच है। धनी-संपन्न परिवार और अधिक धनवान हो रहे हैं, यह एक सच है। परंतु इसी जुमले का दूसरा वर्ग अर्थात् गरीब और अधिक गरीब होता जा रहा है, विशुद्ध रूप से झूठ है। जो समूह पहले गरीबी रेखा के नीचे था, वह ऊपर उठ रहा है, जिससे नया मध्यवर्ग तैयार हो रहा है। आयकर विभाग के अनुसार, वित्तवर्ष 2013-14 और 2021-22 के बीच व्यक्तिगत करदाताओं में 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारतीय आर्थिकी वर्ष 2014 में (आकार के संदर्भ में) 11वें पायदान पर थी। आज हम 5वीं बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था हैं और निकट भविष्य में तीसरी बड़ी आॢथक शक्ति भी बन जाएंगे। यह उपलब्धि गरीबी, भुखमरी और अभाव के संकट को समाप्त किए बिना प्राप्त नहीं हुई है। स्पष्ट है कि ‘सर्वेसंतु निरामया’ रूपी दर्शन में ही मानव-कल्याण निहित है।  हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या ‘डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है।’ -बलबीर पुंज

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