Edited By ,Updated: 30 Nov, 2024 05:40 AM
आज न्यायपालिका विभिन्न मुद्दों पर जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभा रही है परंतु न्यायालयों में लगातार चली आ रही जजों की भारी कमी के कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में विलंब हो रहा है।
आज न्यायपालिका विभिन्न मुद्दों पर जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभा रही है परंतु न्यायालयों में लगातार चली आ रही जजों की भारी कमी के कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में विलंब हो रहा है। इसी के दृष्टिगत 1 सितम्बर, 2024 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा था कि ‘‘लंबित मामले और बैकलॉग न्यायपालिका के लिए एक बड़ी चुनौती हैं, इस समस्या को प्राथमिकता के आधार पर सुलझाना चाहिए और अदालतों में स्थगन की संस्कृति को बदलने के प्रयास करने की जरूरत है।’’देर से मिले न्याय के चंद ताजा उदाहरण निम्न में दर्ज हैं :
* 6 अगस्त को कानपुर जिला अदालत ने 2003 में एक महिला के बेटे के अपहरण के आरोप में 21 वर्ष बाद एक सपा नेता और उसकी पत्नी को 10 वर्ष कैद की सजा और 50-50 हजार रुपए जुर्माना लगाया।
* 3 सितम्बर को सुप्रीमकोर्ट ने 32 वर्ष बाद तलाक के एक मुकद्दमे में कर्नाटक की एक अदालत का फैसला पलटते हुए पीड़िता को 20 लाख रुपयों के स्थान पर 30 लाख रुपए गुजारा भत्ता देने का उसके पति को आदेश दिया।
* 30 अक्तूबर को पाली (राजस्थान) में एस.सी.एस.टी. कोर्ट के स्पैशल जज ने एक दम्पति की जमीन पर कब्जा करने के आरोप में 15 वर्ष बाद 3 दोषियों को तीन-तीन वर्ष कैद की सजा सुनाई।
* 28 सितम्बर को राजस्थान हाईकोर्ट ने 30 वर्ष बाद एक व्यक्ति की बेटी के हत्यारे पति को उम्र कैद की सजा सुनाई। इस संबंध में मृतका के पिता ने 20 जून, 1991 को केस दर्ज करवाया था तथा निचली अदालत ने 28 अक्तूबर, 1992 को आरोपी को बरी कर दिया था जिसके बाद मृतका के पिता ने राजस्थान हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
* 28 नवम्बर को प्रतापगढ़ (राजस्थान) के जिला सैशन जज की अदालत ने दहेज हत्या के एक मुकद्दमे की सुनवाई करते हुए मृतका के पति को 11 वर्ष बाद उम्र कैद की सजा सुनाई। जजों की कमी के कारण देर से मिले न्याय के ये तो चंद उदाहरण मात्र हैं। देश में लंबित केसों के मामले में सबसे बुरी स्थिति निचली अदालतों की है जिनमें 22 प्रतिशत केस 5 से 10 वर्षों तथा 23 प्रतिशत केस 10 वर्षों से भी अधिक समय से लंबित चले आ रहे हैं।
सुप्रीमकोर्ट व हाईकोर्टों में भी 17 प्रतिशत केस 5 से 10 वर्षों से लंबित हैं। सुप्रीमकोर्ट में 7 प्रतिशत व हाईकोर्टों में 9 प्रतिशत केस 10 से अधिक वर्षों से अटके हुए हैं। सुप्रीमकोर्ट द्वारा समय-समय पर इस सम्बन्ध में ङ्क्षचता जताने के बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। हालांकि हर 10 लाख लोगों पर कम से कम 50 जज होने चाहिएं पर अभी भी इतनी जनसंख्या पर मात्र 21 जज ही हैं। इसी पृष्ठभूमि में कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने 28 नवम्बर को राज्यसभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में बताया कि : ‘‘इस वर्ष 21 नवम्बर की स्थिति के अनुसार निचली अदालतों में 5245 जजों की तथा हाईकोर्टों में 364 जजों की कमी है। 1 जनवरी, 2024 तक देश की विभिन्न जिला और मातहत अदालतों में 4.44 करोड़ से अधिक मामले लंबित थे, जबकि पिछले 11 महीनों में इनमें 9.22 लाख से अधिक मामलों की वृद्धि हो जाने के कारण 15 नवम्बर तक यह आंकड़ा बढ़कर 4.53 करोड़ से अधिक हो गया है।’’
स्पष्टत: यदि अदालतों में पर्याप्त संख्या में जज ही नहीं होंगे तो फिर भला लोगों को समय पर न्याय किस प्रकार मिल सकता है। अत: इसके लिए जहां अदालतों में जजों की कमी यथाशीघ्र दूर करने की आवश्यकता है, वहीं अदालतों में न्याय प्रक्रिया को और चुस्त व तेज करने की भी जरूरत है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की शपथ ग्रहण करने से कुछ दिन पहले न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कहा था कि उनकी प्राथमिकताएं मामलों का बैकलॉग समाप्त करने, अदालती कार्रवाई को सरल और सुलभ बनाने तथा जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को आसान बनाने की रहेगी। वह अपने प्रयास में कितना सफल होते हैं इसका उत्तर तो आने वाला समय ही देगा।—विजय कुमार