Dev diwali katha: त्रिपुरासुर वध के पर्व पर क्यों जलता है काशी का दीपक, पढ़े इसके पीछे की कथा

Edited By Updated: 04 Nov, 2025 03:29 PM

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पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव के पुत्र स्वामी कार्तिकेय को देवताओं का सेनापति बनाया गया। भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया था, जिसके बाद तारकासुर के तीन पुत्र तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली अपने पिता के वध का बदला लेने का प्रण लेते हैं।

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Dev diwali 2025: पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव के पुत्र स्वामी कार्तिकेय को देवताओं का सेनापति बनाया गया। भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया था, जिसके बाद तारकासुर के तीन पुत्र तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली अपने पिता के वध का बदला लेने का प्रण लेते हैं। इन तीनों को त्रिपुरासुर के नाम से जाना गया। पिता के वध का बदला लेने के लिए तीनों ने ब्रह्मा देव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया और वरदान में अमृत्व मांगा। ब्रह्मा देव ने अमरता का वरदान देने से मना कर दिया और कहा कि कुछ और मांगो, जिसके बाद त्रिपुरासुर ब्रह्मदेव से वर मांगते हैं कि हमारे लिए तीन पुरियां जब अभिजीत नक्षत्र में एक पंक्ति में हो और अत्यंत शांत होकर असंभव रथ पर सवार असंभव बाण से मारना चाहे तभी हमारी मृत्यु हो जिसके बाद ब्रह्मा देव तथास्तु कहते हैं। वरदान के बाद त्रिपुरासुर बलशाली होकर हर कहीं आतंक मचाने लगते हैं, तीनों जहां भी जाते लोगों और ऋषि मुनियों पर अत्याचार करने लगते हैं। 

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देवता भी उनके आतंक से परेशान होकर भगवान शिव के पास जाते हैं और अपनी व्यथा सुनाते हैं,जिसके बाद भगवान शिव त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लेते हैं। भगवान शिव ने त्रिपुरासुर के वध के लिए पृथ्वी को रथ बनाया,सूर्य और चंद्रमा को पहिए बनाया, सृष्टि सारथी बने, भगवान विष्णु बाण बने, बासुकी धनुष डोर बने और मेरु पर्वत धनुष बने। फिर भगवान शिव उस असंभव रथ पर सवार होकर असंभव धनुष पर बाण चढ़ाते हुए अभिजीत नक्षत्र में तीनों पुरियों के एक पंक्ति में आते ही त्रिपुरासुर पर आक्रमण करते हैं और प्रहार होते ही तीनों पुरियां जलकर भस्म हो जाती हैं।  त्रिपुरासुर यानी कि तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली का अंत होता है। त्रिपुरासुर के वध के बाद भगवान शिव त्रिपुरारी के नाम से जाने गए। बता दें कि त्रिपुरासुर का जब वध हुआ उस दिन कार्तिक पूर्णिमा थी। 

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त्रिपुरासुर के वध की खुशी से सभी देवता प्रसन्न होकर भगवान शिव की नगरी काशी में दीप दान कर खुशियां मनाई गई तभी से कार्तिक पूर्णिमा की तिथि को देव दिवाली कहा गया क्योंकि सभी देवताओं ने पृथ्वी पर आकर दिवाली मनाई थी इसलिए इसे देव दिवाली कहा गया। एक अन्य कथा के अनुसार देव दिवाली भगवान नारायण के स्वागत में मनाई जाती है दिवाली के बाद एकादशी को भगवान नारायण सोकर उठते हैं इस दिन से सभी शुभ कार्यों की शुरुआत हो जाती है और भगवान नारायण की स्वागत में देव दिवाली मनाई जाती है। देव दिवाली का खास संबंध काशी से है। इस दिन काशी बनारस के घाट में दीप दान की जाती है और पूरा घाट दीप से रोशन होकर जगमगाता है देव दिवाली के दिन यह कथा सुनने मात्र से ही लाभ होता है इंसान के बड़े-बड़े काम बनने लगते हैं। 

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