Dharmik Katha- सत चित्त व आनंद स्वरूप है ईश्वर

Edited By Jyoti,Updated: 12 Jun, 2021 02:19 PM

dharmik katha in hindi

जड़ और चेतन के अपने-अपने गुण-धर्म भी हैं। ईश्वर चेतन है इसलिए उसका अंश जीव-चेतन तो है ही साथ ही उसमें वे सब विशेषताएं भी बीज रूप में मौजूद हैं, जो उसके मूल उद्गम ब्रह्म में ओतप्रोत हैं।

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जड़ और चेतन के अपने-अपने गुण-धर्म भी हैं। ईश्वर चेतन है इसलिए उसका अंश जीव-चेतन तो है ही साथ ही उसमें वे सब विशेषताएं भी बीज रूप में मौजूद हैं, जो उसके मूल उद्गम ब्रह्म में ओतप्रोत हैं। ईश्वर सत चित् और आनन्दस्वरूप है। जीव में भी सत्य में ही प्रसन्नता तथा संतोष अनुभव करने की प्रकृति है।

कोई व्यक्ति स्वार्थवश स्वयं भले ही दूसरों से असत्य व्यवहार करे पर उसके साथ दूसरे जब झूठ, कपट-छल, विश्वासघात का व्यवहार करते हैं तो बड़ा अप्रिय लगता है और दु:ख होता है। हर किसी को यही पसंद है कि दूसरे उसके साथ पूर्ण निष्कपट तथा सच्चाई का व्यवहार करें, छल और धोखे की बात सुनते ही मन में भय, आशंका और घृणा उत्पन्न होती है।

इससे स्पष्ट है कि जीव अपने उद्गम केन्द्र ब्रह्य का ‘सत्’ -गुण अपने अन्दर गहराई तक धारण किए हुए है। चित् अर्थात् चेतना सक्रियता। जीव भी ईश्वर की भांति आजीवन, निरन्तर सक्रिय रहता है। सोते समय, मूच्र्छा के समय केवल मस्तिष्क का एक छोटा भाग अचेत होता है। बाकी समस्त शरीर हर घड़ी काम करता रहता है। रक्त का संचार, श्वास-प्रवास, पाचन, स्वप्न आदि की क्रियाएं बराबर चलती रहती हैं। 

शरीर के सभी कल-पुर्जे अचेतन कहे जाने वाले मस्तिष्क के सहारे ठीक वैसा ही काम करते रहते हैं, जिस प्रकार जागते रहने पर होता था। विचार, भावना, उत्साह, स्फूर्ति एवं क्रियाशीलता को चेतना का ही अंग कहा जाएगा। ईश्वर चित् अर्थात् चेतन है तो जीव भी वैसा ही क्यों न रहेगा। जब परमात्मा की सत्ता समस्त ब्रह्म में व्यापक होकर असंख्य प्रकार की प्रक्रियाएं निरन्तर संचालित रखती हैं तो जीव भी पिंड में, शरीर में व्याप्त होकर सदैव अपना चेतना व्यापार क्यों जारी न रखेगा!!

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