Ganesh Shankar Vidyarthi death anniversary: कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिलाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी की रोचक कहानी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 25 Mar, 2024 10:53 AM

ganesh shankar vidyarthi death anniversary

कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी।

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Ganesh Shankar Vidyarthi death anniversary 2024: कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेश शंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।  

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श्री गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मोहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद के घर में 25 अक्टूबर, 1890 को पिता श्री जयनारायण और माता गोमती देवी के यहां हुआ था। कॉलेज के समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और अंग्रेजी राज के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल कायस्थ इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे। उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई खण्डित हो गई लेकिन उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अंत तक जारी रहा।

कुछ समय एक बैंक में नौकरी की, फिर स्कूल में अध्यापन कार्य किया और वहां भी मन नहीं लगा तो वह प्रयाग आ गए और 1911 में ‘सरस्वती’ पत्र में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद ‘सरस्वती’ छोड़कर ‘अभ्युदय’ में सहायक संपादक हुए। अंतत: वह कानपुर लौट गए और अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग-मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंत: 9 नवम्बर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक ‘प्रताप’ के नाम से निकाला। इस समाचार पत्र के प्रथम अंक में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए, अपने हक-अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे।

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7 वर्ष बाद 1920 में विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ को दैनिक कर दिया और ‘प्रभा’ नामक एक साहित्यिक व राजनीतिक मासिक पत्रिका भी अपने प्रैस से निकाली। अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर ‘प्रताप’ में लेख लिखने के संबंध में विद्यार्थी जी को झूठे मुकद्दमों में फंसा कर जेल भेज दिया गया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया। ये 5 बार जेल गए और ‘प्रताप’ से कई बार जमानत मांगी गई। इतनी बाधाओं के बावजूद उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कुछ ही वर्षों में वह उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के चोटी के कांग्रेस नेता हो गए।

भगत सिंह आदि की फांसी का समाचार 24 मार्च, 1931 को देश भर में फैल गया। लोगों ने जुलूस निकालकर शासन के विरुद्ध नारे लगाए। इससे कानपुर में मुसलमान भड़क गए और उन्होंने भयानक दंगा किया। इसी भयानक हिन्दू-मुस्लिम दंगों में मुसलमानों ने गणेशशंकर विद्यार्थी की निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च, 1931 को बड़ी बेरहमी से टुकड़े-टुकड़े कर हत्या कर दी। उनकी लाश के बदले केवल एक बांह मिली, जिस पर लिखे नाम से वह पहचाने गए। यह 29 मार्च, 1931 का दिन था, जब नम आंखों से विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया।

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