रामायण: पुरुष की कामयाबी के पीछे औरत का हाथ होता है

Edited By Updated: 23 Nov, 2019 02:30 PM

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गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने समय के बुंदेलखंड की आर्थिक स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है: खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बाल, बनिक को न बनिज, न चाकर को चाकरी। जीविका विहीन लोग, सीधे मांस सोच बस, कहें एक एकन सौं, कहां जाएं का करी।।

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गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने समय के बुंदेलखंड की आर्थिक स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है:
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बाल, बनिक को न बनिज, न चाकर को चाकरी। जीविका विहीन लोग, सीधे मांस सोच बस, कहें एक एकन सौं, कहां जाएं का करी।।

ऐसे दरिद्र प्रदेश में भला अपनी कन्या कौन ब्याह देगा जहां न किसान को कृषि कार्य के लिए उत्तम भूमि है, जहां न भिखारी को भीख प्राप्त होती हो, वैश्य को व्यवसाय की गुंजायश न हो, न चाकरी मिलती हो ऐसे जीविका विहीन सीधे-सादे मनुष्य जहां बसते हैं, जिनके समक्ष सदैव क्या करें, क्या न करें, की समस्या खड़ी रहती हो।

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ऐसे निराशापूर्ण वातावरण में भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श से शिला रूपी अहिल्या का नारी रूप ग्रहण करने के समाचार के विंध्य (बुंदेलखंड) के निवासी क्या कल्पना कर रहे हैं : 
विंध्य के बासी उदासी तपी, व्रतधारी महा बिनु नार दुखारे। गौतम तीय तरी तुलसी, सो कथा सुन ये मुनि वृंद सुखारे।।
हुई हैं शिला सब चंद्रमुखी, परसै पद मंजुल कंज तिहारे। कीन्ही भली रघुनाथ जू करूनाकर, कानन कौ  पगु धारे।।

अहिल्या उद्धार की घटना को सुन कर विंध्य के कुंवारों के निराश मन में आशा की एक किरण उत्पन्न हो गई। श्री राम के मार्ग में पडऩे वाली शिलाएं उनके चरण कमलों के स्पर्श से सभी की सभी चंद्रमुखी स्वरूपवान महिलाओं में परिणित हो जाएंगी और सभी कुंवारों के विवाह की संभावनाएं बढ़ जाएंगी।

निराश तुलसीदास के भाग्य ने साथ दिया और रत्नावली जैसी रूपवती पत्नी उन्हें प्राप्त हुई। इन परिस्थितियों में पत्नी के प्रति आसक्ति अति स्वाभाविक है। आनंद के चरम में डूबे तुलसीदास जी को यह सहन नहीं हुआ कि उनकी पत्नी बिना बताए कहीं चली जाए। पत्नी का विछोह उन्हें सहन नहीं हुआ और वह रत्नावली की खोज में निकल पड़े। पीहर जाने की प्रबल संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए वह बदरिया ग्राम की ओर चल पड़े।

वर्षा ऋतु की घनघोर घटनाओं के कारण दिन में भी रात्रि जैसा अंधकार। वर्षा से नदियां उफान पर, कभी-कभी कौंधती बिजली की चमक एक क्षण भर को मार्ग दिखा देती वहीं उसकी कड़क गडग़ड़ाहट से शरीर कांप जाता। इन सब विपरीत परिस्थितियों को अनदेखा कर तुलसीदास रत्नावली की खोज में निकल पड़े हैं।

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तिय सों सनेह, बिन पूछैं पिता गेह गई, भूलि सुधि देह, भजै ताहि ठौर आए हैं।
सूनो लखि गेह, उमडय़ो तिन सनेह जिय, रत्नावली दर्श हेतु, नैन अकुलाए हैं।
भादों की अरघ राति, चपला चमकि जात, मंद-मंद ङ्क्षबदू परें, घोर घन छाये हैं।
ऐसे में तुलसी खेत, सूकर सौं मोद भरे, चपल चाल चलत, जात गंग धार धाये हैं।
शव पै संवार हुय, गंगधार पार करी, बदरी ससुरारि जाय पौरिया जगाए है।

इन सब विषम परिस्थितियों में तुलसीदास जी को आया देखकर रत्नावली का कुपित होना पूर्णत: स्वाभाविक ही था। उसका क्रोध फूट पड़ा और रत्नावली ने उन्हें फटकारते हुए कहा : 
लाज न आवत आपको दौरे आयहु साथ। धिक-धिक ऐसे प्रेम को कहा कहौ मैं नाथ।।
अस्थि चर्म मय देह मम तामै ऐसी प्रीति। तैसी लौ श्रीराम महं होति न तो भवभीति।।

रत्नावली का उक्त कथन तुलसीदास जी को तो वरदान सिद्ध हुआ किन्तु इसके पश्चात रत्नावली की क्या दशा हुई होगी जिसने अपने भावी जीवन के सभी सुखों की आहुति दे दी। पति को सन्मार्ग पर लेने के लिए जिसने अपना गृहस्थ जीवन अपनी वाणी से ही समाप्त कर दिया।

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महान विदुषी के इस त्याग से स्पष्ट है कि रत्नावली के ही शब्दों में दृश्टव्य है। रत्नावली कहती है : 
सोवक्त सो पिय जगि गये, जगिहु गई हौं सोइ।
कबहुं कि अब रत्नावलिहि, आई जगावहि मोइ।। 1।।
जानि परे कहुं रज्जु अहि,कहुं अहि रज्जु लखात।
रज्जु-रज्जु अहि-अहि कबहुं, रतन समय की बात।। 2।।
नारि सोई बड़भागिनी, जाके प्रियतम पास।
लखि-लखि चरन सीतल करे, ही तल लहे हुलास।। 3।।
पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठ सिंगार।
सब सिंगार ‘रत्नावली’ इक, पिय बिन निस्सार।। 4।।
धन सुख जन सुख बंधु सुख, सुत  सुत सबहि सराहिं।
पै ‘रत्नावली’ सकल सुख पिय, सुख पटतरि नाहिं।। 5।।
जनम-जनम पिय पद कमल, रहे ‘रतन’ अनुराग।
पिय विरहन होवे न कबहुं, पाहुं अचल सुहाग।। 6।।

रत्नावली की शेष जीवन में कभी भी तुलसीदास जी से भेंट नहीं हो सकी और उसने एक तपस्वी की भांति अपना शेष जीवन तुलसीदास की स्मृतियों में ही बिता दिया। 

रत्नावली तुलसीदास जी से कम वंदनीय नहीं है। यदि रत्नावली ने तुलसीदास को सन्मार्ग की ओर उन्मुख न किया होता तो आज ‘श्रीराम चरित मानस’ जैसा महाकल्याणकारी ग्रंथ हमारे समक्ष न होता। अस्तु वंदनीय रत्नावली के चरणों में : 
बंदहुं रत्नावलि चरण, दीन्हों पति को ज्ञान। त्याग काम रति वासना,कीजे प्रभु का ध्यान।। 1।।
धन्य-धन्य रत्नावली, धन्य हुई फटकार। तेरे कारण तुलसि का होता जय-जयकार।। 2।।
नमन-नमन शत-शत नमन, बनी प्रेरणा स्रोत। करी प्रज्वलित जगत में तुलसी ‘मानस’ जोत।। 3।।

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