सद्गुरु कबीर वाणी:  प्रेम से भक्ति है और भक्ति से प्रेम

Edited By Updated: 04 Aug, 2021 05:30 PM

kabir vani in hindi

जब तक सांसारिक भोग कामनाओं की भक्ति है, तब तक उसकी कोई सेवा फलदायी नहीं होगी। इससे जीवन का कल्याण नहीं होगा। जो अपना

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जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव।
कहै कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव।

भावार्थ : जब तक सांसारिक भोग कामनाओं की भक्ति है, तब तक उसकी कोई सेवा फलदायी नहीं होगी। इससे जीवन का कल्याण नहीं होगा। जो अपना देव (आत्म स्वरूप) है, वह तो निष्कामी है। इसका मिलन सांसारिक कामना भक्ति से कैसे हो सकता है।

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव।
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव।।

भावार्थ : निश्छल सुदृढ़ प्रेम के बिना भक्ति नहीं होती और निष्काम भक्ति के बिना प्रेम नहीं होता, अर्थात प्रेम से भक्ति और भक्ति से प्रेम होता है। ये भिन्न-भिन्न नहीं है। ये दोनों तो एक ही रूप हैं और इनका गुण, लक्षण, स्वभाव भी एक जैसा ही होता है।

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन निशाय।

भावार्थ : जाति, वर्ण और कुल परिवार का अहंकार त्याग कर तथा अपने मन चित्त को शुद्ध एकाग्र कर भक्ति करो। जब सद्गुरु का दर्शन-मिलन होता है तब उनकी सेवा भक्ति एवं सदुपदेश से आवागमन (जन्म-मरण) के चक्र का दुख मिट जाता है।

विषय त्याग बैराग है, समता कहिए ज्ञान।
सुखदायी सब जीव सों, यही भक्ति परमान।

भावार्थ : पांचों विषयों का त्याग ही वैराग्य है और भेदभाव से रहित सभी से समता का व्यवहार ज्ञान कहलाता है। संसार के सभी जीवों को सुख देने वाला आचरण तथा स्नेह, भक्ति का सत्य प्रमाण है। गुरु भक्त में इन सद्गुणों का समावेश होता है।

भक्ति पदार्थ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति, जो पूरण भाग मिलाय।

भावार्थ : भक्ति बहुत ही उत्तम एवं अनमोल पदार्थ है। यह पदार्थ तभी मिलता है जब पूर्ण सद्गुरु स्वयं सहायक हों, उनका सद्ज्ञान
प्राप्त हो। प्रेम- प्रीति से परिपूर्ण भक्ति तभी प्राप्त होती है जब सद्गुरु की कृपा से पूर्ण सौभाग्य मिले।

और कर्म सब कर्म हैं, भक्ति कर्म निहकर्म।
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म।

भावार्थ : संसार के अन्य कर्म तो वे कर्म हैं जिनसे आसक्तिवश जीव बंधा होता है और उसका फल उसे भोगना पड़ता है परंतु भक्ति का कर्म ऐसा नहीं है यह तो भव-बंधनों से मुक्ति दिलाता है। भ्रम को त्याग कर सदा प्रेम से भक्ति करो।

भक्ति महल बहु ऊंच है, दूरहि ते दरशाय।
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय।

भावार्थ : भक्ति रूपी मंदिर बहुत ऊंचा होता है और वह दूर से ही सबको दिखाई पड़ जाता है अर्थात भक्तजनों की भक्ति से सद्गुणों की सर्वत्र प्रशंसा होती है, अत: जो कोई भक्ति करता है, उसके भक्तिमय जीवन की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। वह अकथनीय एवं अद्भुत है।

भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव।
परमार्थ के कारने, यह तन रहो कि जाव।।

भावार्थ : भक्तों की यह रीति है ऐसा खुला व्यवहार है कि वे मोह माया को त्याग कर और अपने मन को वश में करके, प्रेम पूर्वक गुरु की सेवा भक्ति करते हैं। उत्तम शुभ कर्मों तथा अन्य जनों के उपकार के लिए उनका शरीर चाहे मिट ही जाए परंतु वे उसे अवश्य करते हैं।

भक्ति बिना नहिं निस्तरै, लाख करै जो कोय।
शब्द सनेही है रहै, घर को पहुंचे सोय।।

भावार्थ : भक्ति के बिना उद्धार होना संभव नहीं, चाहे लाख प्रयत्न करो वे सब व्यर्थ ही सिद्ध होंगे, जो केवल सद्गुरु के प्रेमी हैं, उनके सत्य ज्ञान का आचरण करने वाले हैं वही अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं।
 

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