महारानी लक्ष्मी बाई जयंती: खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 19 Nov, 2020 07:57 AM

maharani lakshmi bai jayanti

बुंदेले हरबोलों के मुंह से हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी आज महारानी लक्ष्मी बाई की जयंती है। उनके राष्ट्र प्रेम, साहस और बलिदान की अमर कहानी बुन्देलखण्ड के इतिहास को गौरान्वित कर महिलाओं के लिए आज भी प्रेरणा का स्रोत...

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बुंदेले हरबोलों के मुंह से हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

Maharani lakshmi bai jayanti: आज महारानी लक्ष्मी बाई की जयंती है। उनके राष्ट्र प्रेम, साहस और बलिदान की अमर कहानी बुन्देलखण्ड के इतिहास को गौरान्वित कर महिलाओं के लिए आज भी प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है। वीरागंनाओं के पारस्परिक सहयोग, त्याग और आत्मविश्वास दलित सवर्ण का अमिट प्रेम भी राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव का प्रतीक बना हुआ है। देश की आजादी के लिए वर्ष 1857 की पहली लड़ाई में जहां राजाओं, नवाबों, देशभक्त साधन सम्पन्न साहसिक नागरिकों ने संघर्ष किया वहीं रानी लक्ष्मीबाई का राष्ट्र प्रेम संघर्ष आज भी यादगार बना हुआ है। 

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जीवन परिचय: 19 नवम्बर 1828 को काशी के सुप्रसिद्ध महाविद्वान ब्राह्मण परिवार में जन्मी रानी लक्ष्मीबाई का पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा, बिठूर, कानपुर में हुई। बिठूर में वह मनु और छबीली के नाम से विख्यात थी। उन्होंने युद्ध कौशल की शिक्षा बिठूर में ही ली। झांसी के गंगाधर राव से विवाहोपरान्त वह लक्ष्मीबाई के नाम से विख्यात हुई। उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन कुछ माह उपरांत उसकी मृत्यु हो गई। पुत्र के गम में राजा भी चल बसे। भारत देश की इस विरांगना ने 17 जून 1858 को ग्वालियर में सदा के लिए आंखें बंद कर ली थी। अल्प आयु में ही उन्होंने सेनापति के साथ-साथ कुशल प्रशासक की अमिट छाप छोड़ी है। 

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जीवनसंगी और संतान: राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजी सरकार को सूचना दे दी थी परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। रानी ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया और घोषणा कर दी कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नही दूंगी। यहीं से पहले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ हुआ।

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बेबाक रवैया: झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बेबाक अपनी बात रखती थी। एक बार वह एक कथावाचक के यहां पहुंचीं। उस समय वहां कथा चल रही थी। वह बाल विधवा होने के बावजूद कांच की चूडिय़ों की बजाय सोने की चूडिय़ां पहने हुई थीं। उनके हाथों में चूडिय़ों को देखकर पंडित जी ने व्यंगात्मक लहजे से कहा, ‘‘घोर कलियुग है। धर्म-कर्म की सारी मर्यादाएं टूट गई हैं। विवाहित स्त्रियां पहले कांच की चूडिय़ां पहनती थीं वे अब विधवा होने के बाद सोने की चूडिय़ां पहन रही हैं।’’

जब यह बात कही गई, तब काफी लोग वहां मौजूद थे यह सुनकर लक्ष्मीबाई ने कहा, ‘‘महाराज! आप क्या जानें कि हमने सोने की चूडिय़ां क्यों पहन रखी हैं? पति के जीते जी कांच की चूडिय़ां इसलिए पहनती थी ताकि हमारा सुहाग कांच की तरह नाशवान रहे और जब उन्होंने शरीर त्याग दिया तब सोने की चूडिय़ां इसलिए पहनी हैं ताकि हमारा सुहाग सोने की तरह चमकता रहे।’’ 

वह पंडित लक्ष्मीबाई के इस उत्तर को सुनकर ठगा-सा रह गया।

शिक्षा: बिना कुछ जाने-समझे व्यंग्य करना कभी-कभी भारी भी पड़ सकता है। इसलिए व्यंग्य सोच-समझ कर ही करना चाहिए।

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