श्रीमद्भगवद्गीता: ‘सर्प’ जैसी हानिकारक ‘इंद्रियों’ पर पाएं काबू

Edited By Jyoti,Updated: 15 Sep, 2021 12:36 PM

srimad bhagavad gita gyan in hindi

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसी तरह जो मनुष्य अपनी इंद्रियों को इंद्रिय विषयों से खींच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है।

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता 
‘सर्प’ जैसी हानिकारक ‘इंद्रियों’ पर पाएं काबू

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक- 
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थे यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है उसी तरह जो मनुष्य अपनी इंद्रियों को इंद्रिय विषयों से खींच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है।

किसी योगी, भक्त या आत्मसिद्ध व्यक्ति की कसौटी यह है कि वह अपनी योजना के अनुसार इंद्रियों को वश में कर सके किन्तु अधिकांश व्यक्ति अपनी इंद्रियों के दास बने रहते हैं और इंद्रियों के ही कहने पर चलते हैं।

इंद्रियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है। वे अत्यंत शिथिलतापूर्वक तथा बिना किसी नियंत्रण के कर्म करना चाहती हैं। योगी या भक्त को इन सर्पों को वश में करने के लिए एक सपेरे की भांति अत्यंत प्रबल होना चाहिए। वह उन्हें कभी भी कार्य करने की छूट नहीं देता।

शास्त्रों में अनेक आदेश हैं उनमें से कुछ ‘करो’ तथा कुछ ‘न करो’ से संबद्ध हैं। जब तक कोई इन ‘करो या न करो’ का पालन नहीं कर पाता और इंद्रिय भोग पर संयम नहीं बरतता है तब तक उसका कृष्णभावनामृत में स्थिर हो पाना असंभव है।

अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है कि वह अपनी इंद्रियों को आत्मतुष्टि के स्थान पर भगवान की सेवा में लगाए रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत के अनुरूप है जो अपनी इंद्रियों को समेटे रखता है।
 

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