Swami vivekananda story: यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िए

Edited By Updated: 11 Jul, 2025 02:00 PM

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Swami Vivekanand ka jivan parichay: ‘उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए’ का पूरी दुनिया को सन्देश देकर अपने लक्ष्य के प्रति जुटने का जनता को आह्वान करने वाले महान देशभक्त युवा संत विवेकानंद जी को करोड़ों युवा आज भी अपना आदर्श...

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Swami Vivekanand ka jivan parichay: ‘उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए’ का पूरी दुनिया को सन्देश देकर अपने लक्ष्य के प्रति जुटने का जनता को आह्वान करने वाले महान देशभक्त युवा संत विवेकानंद जी को करोड़ों युवा आज भी अपना आदर्श मानते हैं। उनके विचार लोगों की सोच और व्यक्तित्व को बदलने वाले हैं।

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39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गए, वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने 1893 में अमरीका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में भारत की ओर से हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िए।’’

स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील पिता विश्वनाथ दत्त के घर धार्मिक विचारों वाली माता भुवनेश्वरी देवी की कोख से हुआ। उन्हें घर में वीरेश्वर पुकारा जाता था किन्तु औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। इनके दादा दुर्गाचरण दत्त संस्कृत और फारसी के विद्वान थे।  

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स्वामी जी एकमात्र छात्र थे, जिन्होंने प्रैसीडैंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किए। वह नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम व खेलों में भाग लिया करते थे। उन्होंने कला स्नातक की डिग्री पूरी की लेकिन तभी पिता की मृत्यु से घर का भार उन पर आ पड़ा।

1881 में रामकृष्ण परमहंस जी से पहली मुलाकात हुई। उनकी प्रशंसा सुनकर नरेंद्र पहले तो तर्क करने के विचार से ही उनके पास गए थे, किंतु परमहंस जी ने देखते ही पहचान लिया कि यह तो वही शिष्य है, जिसका उन्हें लम्बे समय से इंतजार था। उनकी कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ, फलस्वरूप वह परमहंस जी के शिष्यों में प्रमुख हो गए।

25 वर्ष की आयु में संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ और इन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए। अपने गुरु से प्रभावित स्वामी जी ने सीखा कि सारे जीवों मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व है।

परमहंस जी की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप की पैदल यात्रा कर तत्कालीन स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया।

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31 मई, 1893 को इन्होंने विदेश यात्रा शुरू की और जापान के कई शहरों (नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो) का दौरा किया, फिर चीन और कनाडा होते हुए अमरीका के शिकागो पहुंचे, जहां 11 सितम्बर को विश्व धर्म महासभा का आयोजन होने वाला था।

उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत, ‘मेरे अमरीकी भाइयों एवं बहनों’ के साथ की थी। इनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने दुनिया का दिल जीत लिया और हॉल में बैठे लोग 2 मिनट लगातार तालियां बजाते रहे। इसके बाद तो विश्व धर्म महासभा में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।

अमरीका में उनका दिल खोल कर स्वागत हुआ और उनके भक्तों का बड़ा समुदाय बन गया। वहां उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। जनवरी, 1897 में भारत लौटने पर रामेश्वरम् (तमिलनाडु) में इनका जोरदार स्वागत हुआ।

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1900 में लॉस एंजल्स में दिए गए व्याख्यानों में उन्होंने कहा, ‘‘हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य में व्यक्तित्व का निर्माण और मनुष्य का विकास ही है। उठो जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’

4 जुलाई, 1902 को 39 वर्ष, 5 माह और 23 दिन की आयु में रात्रि 9.10 पर ध्यानावस्था में ही स्वामी जी ने महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गई।

इनके अनुयायियों ने इनकी स्मृति में वहां एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के सन्देशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।

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