पंढरपुर यात्रा यानी ईश्वर के पास पहुंचना

Edited By ,Updated: 10 Aug, 2016 11:39 AM

pandharpur

पंढरपुर यात्रा का हिंदुओं में काफी महत्व है। पिछले सात सौ वर्षों से महाराष्ट्र के पंढरपुर में आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी के पावन अवसर

पंढरपुर यात्रा का हिंदुओं में काफी महत्व है। पिछले सात सौ वर्षों से महाराष्ट्र के पंढरपुर में आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी के पावन अवसर पर इस महायात्रा का आयोजन होता आ रहा है। इसे ‘वैष्णवजनों का कुंभ’ कहा जाता है। देश भर में ऐसी कई यात्राओं के अवसर होते हैं और हर एक यात्रा की अपनी विशेषता होती है। 
 
भीमा नदी के तट पर बसा पंढरपुर शोलापुर जिले में अवस्थित है। आषाढ़ के महीने में यहां करीब 5 लाख से ज्यादा हिंदू श्रद्धालु प्रसिद्ध पंढरपुर यात्रा में भाग लेने पहुंचते हैं। भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए देश के कोने-कोने से पताका-दिंडी लेकर इस तीर्थस्थल पर पैदल चल कर लोग यहां इकट्ठा होते हैं। इस यात्रा क्रम में कुछ लोग आलंदी में जमा होते हैं और पुणे तथा जेजूरी होते हुए पंढरपुर पहुंचते हैं। इनको ‘ज्ञानदेव माउली की दिंडी’ के नाम से दिंडी जाना जाता है।  
 
लगभग 1000 साल पुरानी पालकी परंपरा की शुरूआत महाराष्ट्र के कुछ प्रसिद्ध संतों ने की थी। उनके अनुयायियों को ‘वारकरी’ कहा जाता है, जिन्होंने इस प्रथा को जीवित रखा। पालकी के बाद दिंडी होता है। वारकरियों का एक सुसंगठित दल इस दौरान नृत्य, कीर्तन के माध्यम से महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत तुकाराम की र्कीत का बखान करता है। यह कीर्तन आलंदी से देहु होते हुए तीर्थनगरी पंढरपुर तक चलता रहता है। यह यात्रा जून के महीने में शुरू होकर 22 दिनों तक चलती है।  
 
पंढरपुर की यात्रा की विशेषता है, उसकी ‘वारी’। ‘वारी’ का अर्थ है- ‘सालों-साल लगातार यात्रा करना।’ 
 
इस यात्रा में हर वर्ष शामिल होने वालों को ‘वारकरी’ कहा जाता है और यह संप्रदाय भी ‘वारकरी संप्रदाय’ कहलाता है। इस ‘वारी’ का जब से आरंभ हुआ है, तब से पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के लोग हर साल वारी के लिए निकल पड़ते हैं। महाराष्ट्र में कई स्थानों पर वैष्णव संतों के निवास स्थान हैं या उनके समाधि स्थल हैं। ऐसे स्थानों से उन संतों की पालकी ‘वारी’ के लिए प्रस्थान करती है। आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंचने का उद्देश्य सामने रख कर, उसके अंतर के अनुसार हर पालकी का अपने सफर का कार्यक्रम तय होता है।
  
इस मार्ग पर कई पालकियां एक-दूसरे से मिलती हैं और उनका एक बड़ा कारवां बन जाता है। ‘वारी’ में दो प्रमुख पालकियां एक संत ज्ञानेश्वरजी की तथा दूसरी संत तुकाराम की होती है। 18 से 20 दिन की पैदल यात्रा कर वारकरी ‘देवशयनी एकादशी’ के दिन पंढरपुर पहुंच जाते हैं। वारी में शामिल होना या वारकरी बनना वह एक परिवर्तन का आरंभ है। 
  
वारी से जुडऩे पर मनुष्य के विचारों में परिवर्तन होता है तो उसके आचरण में भी परिवर्तन होता है। यह पूरी प्रक्रिया वारी में अपने आप शुरू हो जाती है, क्योंकि वारी का उद्देश्य है-ईश्वर के पास पहुंचना, निकट जाना। वारी में दिन-रात भजन-कीर्तन, नामस्मरण चलता रहता है। अपने घर की, कामकाज की, खेत की समस्याओं को पीछे छोड़कर वारकरी वारी के लिए चल पड़ते हैं, किंतु वारकरी दैववादी बिल्कुल नहीं होता, बल्कि प्रयत्नवाद को मानकर अपने क्षेत्र में अच्छा कार्य करता है, क्योंकि हर काम में वह ईश्वर के दर्शन ही करता है।  

Related Story

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!