ब्रह्म में लीन हो जाते हैं इस तरह किए गए कर्म

Edited By ,Updated: 07 Sep, 2015 03:10 PM

article

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 4 (दिव्यज्ञान), गीता व्याख्या अध्याय (4) यज्ञ का उद्देश्य

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 

अध्याय 4 (दिव्यज्ञान), गीता व्याख्या अध्याय (4)
 
यज्ञ का उद्देश्य 
 
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते।। 23।।
 
भावार्थ : गत-सङ्गस्य—प्रकृति के गुणों में अनासक्त; मुक्तस्य—मुक्त पुरुष का;   ज्ञान-अवस्थित—ब्रह्म में स्थित; चेतस:—जिसका ज्ञान; यज्ञाय—यज्ञ (कृष्ण)केलिए; आचरत:—कर्म करते हुए; कर्म—कर्म; समग्रम्—सम्पूर्ण; प्रविलीयते—पूर्णरूप से विलीन हो जाता है।
 
अनुवाद : जो पुरुष प्रकृति के गुणों में अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णत: स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।
 
तात्पर्य: पूणत: कृष्ण भावना भावित होने पर मनुष्य समस्त द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है और इस तरह भौतिक गुणों के कल्मष से भी मुक्त हो जाता है। वह इसलिए मुक्त हो जाता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपने संबंध की स्वाभाविक स्थिति को जानता है, फलस्वरूप उसका चित्त कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होता। अतएव वह जो कुछ भी करता है, वह आदिविष्णु  कृष्ण के लिए होता है।
 
अत: उसका सारा कर्म यज्ञरूप होता है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य परम पुरुष विष्णु अर्थात् कृष्ण को प्रसन्न करना है। ऐसे यज्ञमय कर्म का फल निश्चय ही ब्रह्म में विलीन हो जाता है और मनुष्य को कोई भौतिक फल नहीं भोगना पड़ता है। 
 
(क्रमश:)

Related Story

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!