बच्चों से छीना जा रहा बचपन

Edited By ,Updated: 26 May, 2023 05:47 AM

childhood being snatched from children

वे दिन भी क्या दिन थे, जब हमारी पैंट की जेब में कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूडिय़ों के टुकड़े, माचिस की खाली डिब्बियां हुआ करती थीं। रिमझिम बारिश में खूब भीगते थे। खेत-खलिहान की गीली मिट्टी से तरह-तरह के खिलौने बनाते, बालू के ढेर में गड्ढे बना...

वे दिन भी क्या दिन थे, जब हमारी पैंट की जेब में कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूडिय़ों के टुकड़े, माचिस की खाली डिब्बियां हुआ करती थीं। रिमझिम बारिश में खूब भीगते थे। खेत-खलिहान की गीली मिट्टी से तरह-तरह के खिलौने बनाते, बालू के ढेर में गड्ढे बना कर नीचे से हाथ मिलाते थे। बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब बगैर किसी तनाव के मस्ती से जिंदगी का आनन्द लिया जाता है। नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलती हंसी, वो मुस्कुराहट, शरारत, रूठना-मनाना, जिद पर अड़ जाना, ये सब बचपन की पहचान होती हैं। 

सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं। कागज की नाव बनाकर नालियों में तैराकी की प्रतियोगिता हुआ करती थी। और तो और, दूसरे के बगीचे से आम, अमरूद और बेर चुरा कर खाते थे। उसका अपना एक अलग ही मजा था। कभी-कभी पकड़े जाते तो डांट भी खूब पड़ती थी। शरारत, खेल-कूद, मौज-मस्ती, न कल की फिक्र थी न आज की ङ्क्षचता। ऐसी ही बहुत-सी शैतानियों से भरा पड़ा था हमारा बचपन। 

सच में बचपन उम्र का सबसे बेहतरीन पड़ाव है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। गिल्ली डंडा, कंचे गोली, चोर-सिपाही, टीपू जैसे खेलों की जगह आधुनिक गेम्स ने ले ली है। बीते बचपन के उन खेलों के बारे में आज के बच्चे जानते तक नहीं। मोबाइल और कम्प्यूटर पर फ्री फायर, पबजी, मोर्टल कॉम्बैट, सबवे सर्फ और टैंपल रन जैसी खेलों ने उन खेलों को बाहर कर दिया है। हमारी आज की इस आपाधापी और भागदौड़ भरी जिंदगी में बचपन गुम-सा हो गया है। अब बच्चों को रामायण, महाभारत और परियों की कहानियां कोई नहीं सुनाता। मेले में बच्चे अब खिलौनों के लिए हठ भी नहीं करते। उनमें वो पहले जैसा चंचलपन और अल्हड़पन भी नहीं रह गया। 

इस सबमें उनके परिवेश, माता-पिता का बहुत ज्यादा कसूर है। उनके पास अपने बच्चों के लिए समय ही नहीं है। वे बच्चों को वीडियो गेम थमा देते हैं और बच्चा घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया को कभी समझ ही नहीं पाता। वह अपने में ही दुबक कर रह जाता है। अभिभावक अपनी इच्छाओं के बोझ तले उनके बचपन को दबाने को लालायित हैं। अपने बचपन के दिनों को तो याद कर वे जरूर फिल्म ‘दूर की आवाज’ का ये गाना गुनगुनाते होंगे- ‘हम भी अगर बच्चे होते, नाम हमारा होता गपलू, पपलू, खाने को मिलते लड्डू।’ 

आज के बच्चे केवल अपने घरों में कैद होकर रह गए हैं। वे दिन भर मोबाइल, टी.वी., वीडियो गेम आदि पर व्यस्त रहते हैं, एक वर्चुअल दुनिया में सिमट कर रह गए हैं। आज बच्चों की किलकारियां और उनकी शरारतों की आवाजें सुनने को नहीं मिलतीं। आज का बचपन पढ़ाई के बोझ तले गुम हो गया है और तकनीक के जाल में उलझ कर, डिजिटल गैजेट्स में सिमट कर गुम हो गया है। अब बच्चे समय से पहले ही बड़े हो रहे हैं क्योंकि उन्हें मोबाइल टी.वी. आदि के माध्यम से वह सारी जानकारी प्राप्त हो जा रही है, जो बड़ों को मिलनी चाहिए। 

यह समाज के लिए एक चिंताजनक स्थिति है। छोटी सी उम्र में ही इन बच्चों को प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है, जिसके चलते उन्हें स्वयं को दूसरों से बेहतर साबित करना होता है। इसी बेहतरी व प्रतिस्पर्धा की कशमकश में बच्चों का बचपन कहीं खो सा जाता है। वैसे माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर डॉक्टर, इंजीनियर या बड़ा अफसर बने। वे अब तक उस अवधारणा को ही अपनाए हुए हैं कि ‘खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब’, जिसके चलते हर पल प्रतिस्पर्धा के माहौल में आज बच्चों पर बस्ते का बोझ बढ़ता जा रहा है। 

हालांकि पढ़ाई-लिखाई भी जीवन में जरूरी है और उसकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन बचपन भी कहां दोबारा लौट कर आने वाला है। इसीलिए अभिभावकों का भी दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को इस अवस्था का भरपूर लाभ उठाने दें। पढ़ाई-लिखाई अपनी जगह है, आज के दौर में उसकी अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, परंतु बचपन भी दोबारा लौटकर नहीं आता। कम से कम इस उम्र में तो आप उन्हें खुला समय  और बचपन का पूरा लुत्फ उठाने दें।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा
 

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