चश्मे वाला, चरखे वाला या चम्पारण वाला गांधी?

Edited By Updated: 03 Oct, 2023 05:14 AM

glasses wheelbarrow or champaran gandhi

महात्मा गांधी की 154वीं जयंती पर वर्धा के सेवाग्राम में गांधी कुटीर के सामने खड़ा मैं सोचने लगा। किस गांधी को नमन करूं? उस चश्मे वाले संत को जो सरकारी विज्ञापनों के कोने से झांकता है? या उस चरखे वाले दार्शनिक को जो लाइब्रेरी और सैमीनार में छिपा बैठा...

महात्मा गांधी की 154वीं जयंती पर वर्धा के सेवाग्राम में गांधी कुटीर के सामने खड़ा मैं सोचने लगा। किस गांधी को नमन करूं? उस चश्मे वाले संत को जो सरकारी विज्ञापनों के कोने से झांकता है? या उस चरखे वाले दार्शनिक को जो लाइब्रेरी और सैमीनार में छिपा बैठा है? या फिर चंपारण वाले उस आंदोलन जीवी को जो देश की धूल फांक रहा है, सड़कों पर भटक रहा है? 

आज की दुनिया में गांधी हर जगह मौजूद है। भाषण में गांधी, किताबों में गांधी, म्यूजियम में गांधी, चौराहे पर गांधी, नोटों पर गांधी, पंच तारा होटल में गांधी, यू.एन. में गांधी तो जी-20 में भी गांधी। गांधी की यह सर्वव्यापकता जश्न का नहीं बल्कि चिंता का विषय होना चाहिए। अगर देश में गांधी के हत्यारे के कंधे पर हाथ रखने वाले विदेशियों के सामने गांधी का नाम जपें तो समझ लीजिए मामला गड़बड़ है। गांधी के सबसे होनहार लेकिन टेढ़े शिष्य राममनोहर लोहिया ने गांधी वध के कुछ ही साल में गांधी विरासत पर मंडराते खतरे को भांप लिया था। लोहिया ने गांधीवादियों को तीन श्रेणियों में बांटा था। एक थे सरकारी गांधीवादी जिनमें नेहरू समेत अधिकांश कांग्रेसी नेताओं को गिना जा सकता था। 

दूसरी श्रेणी में उन्होंने मठाधीश गांधीवादी रखे, जिनमें वे शायद विनोबा भावे समेत सर्वोदय के कार्यकत्र्ताओं को रखते थे। लोहिया का मानना था कि ये दोनों गांधी के सच्चे वारिस नहीं थे। अगर गांधी की विरासत को सही अर्थ में कोई बचा सकता है तो वह है तीसरी श्रेणी के कुजात गांधीवादी, जिनमें लोहिया स्वयं को गिनते थे। आज के संदर्भ में लोहिया का वर्गीकरण प्रासंगिक नहीं बचा। सरकारें पलट गईं, मठ ढह गए और गांधीवादी नाम की जाति ही नहीं बची। लेकिन लोहिया का सवाल आज भी प्रासंगिक है। गांधी के सच्चे वारिस कौन हैं? यह सवाल हर नई पीढ़ी को नए सिरे से पूछना होगा, नए प्रतिमान गढऩे होंगे, नई पहचान करनी होगी। 

चश्मे वाला गांधी संत है। भला है, भोला है। प्रवचन अच्छे देता है, लेकिन विचारमुक्त है। सफल संतों की तरह यदा-कदा सच्चाई और भलाई के उपदेश दे देता है और फिर आंख मूंदकर अपने धन्नासेठ भक्तों को छुट्टा छोड़ देता है। यह गांधी बाबा दरअसल एक लिफाफा है जिसमें आप अपनी मनमर्जी का मजमून रख सकते हैं। स्वच्छता मिशन से लेकर हर एन.जी.ओ. और कंपनी के विज्ञापन के लिए उपलब्ध है यह गांधी। अपने ही हत्यारों से घिरा, बेवजह मुस्कुराता यह 154 साल का बूढ़ा हर महल के कोने में सजाया जा सकता है। ब्लैक का धंधा करने वाले अपनी कमाई को ‘गांधी’ में गिनते हैं। इसी गांधी को देखकर किसी ने ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ कहा होगा। यह चश्मे वाला गांधी मेरा गांधी नहीं है, वह हमारे समय का ज्योतिपुंज नहीं हो सकता। 

चरखे वाला गांधी दार्शनिक है, गांधीवाद का जनक है। किताबों से घिरा, सोच में डूबा, एक सयाना बुजुर्ग है 154 साल का। पिछले 2-3 दशक से किताबें और सैमीनारों की दुनिया में इस गांधी का बहुत जलवा है। और क्यों न हो? आखिर यह गांधी ‘हिंद स्वराज’ का लेखक है, पश्चिमी सभ्यता का आलोचक है, आधुनिकता का विकल्प है। दुनिया को विकास की वैकल्पिक दिशा दिखाने वाली दूरबीन है यह गांधी। यह गांधी सत्य का अन्वेषक है। ‘ईश्वर सत्य है’ से लेकर ‘सत्य ही ईश्वर है’ तक की यात्रा कर चुका है। यह गांधी दुनिया को अङ्क्षहसा का पाठ पढ़ाता है, समझाता है कि हाथ पर हाथ धरे बैठने से अहिंसा नहीं हो जाती। अहिंसा के लिए हिंसा का सक्रिय प्रतिकार करना जरूरी है, सभ्यता के मूल में छुपी हिंसा को रोकना अनिवार्य है। 

यह गांधी नि:संदेह आकर्षक है, आवश्यक भी है लेकिन आज के संदर्भ में यह बहुत अधूरा है। आज की चुनौती को देखते हुए गांधी को महज दार्शनिक बना देना गांधी के साथ अन्याय है, और हमारे साथ भी। यूं भी गांधी ने स्वयं कहा था कि उनका संदेश उनकी लेखनी में नहीं बल्कि उनके जीवन में है। जब गांधी के सपने के भारत पर सत्ता द्वारा प्रायोजित हमला हो रहा है ऐसे में गांधी की किताबों का सिर्फ पाठ करना प्लान है। आज का गांधी चंपारण का आंदोलनजीवी होगा, सत्याग्रह का सिपाही होगा। सतत् संघर्ष और निर्माण में लीन कर्मयोगी ही हमारे समय का गांधी हो सकता है। यह गांधी किसी वैचारिक खांचे में बंधने को तैयार नहीं है, गांधीवाद का अनुयायी भी नहीं है। वह जीवन भर प्रयोग करता है और हर प्रयोग से सीखने को तैयार है। 

वह औपनिवेशिक राज से संघर्ष करता है, बिना अंग्रेजों से घृणा किए। वह छुआछूत के खिलाफ युद्ध छेड़ता है, बिना जाति द्वेष बढ़ाए। वह अंतिम व्यक्ति के साथ खड़ा होता है, उसे मजबूत करने के लिए आत्मनिर्भरता के मॉडल तैयार करता है। वह हर आग को बुझाने के लिए उसमें कूदने को तैयार रहता है। यह गांधी राजनेता है, क्योंकि वह जानता है कि राजनीति आज का युगधर्म है। 154 साल का यह नौजवान अपने जन्मदिन पर सेवाग्राम या राजघाट में दिखाई नहीं पड़ता। वह मणिपुर में सभी खतरों का सामना करते हुए घूम रहा है। दोनों तरफ से गाली सुन रहा है, दिलों को जोड़ रहा है, सत्ता को खरी-खोटी सुना रहा है। 

वह नूंह में जाकर आगजनी और बुल्डोजर दोनों के शिकारों को मिल रहा है, हिंदू और मुसलमान दोनों को समझा रहा है, सरकार की अकर्मण्यता पर उंगली उठा रहा है। वह लिंचिंग के हर शिकार का दर्द सह रहा है, रामनवमी की आड़ में हुड़दंग करने वाले 6 हिंदुओं को नसीहत दे रहा है। और वह कश्मीर के जख्म पर मरहम लगा रहा है। पिछले कुछ समय से इस गांधी ने नए दोस्त भी बना लिए हैं। भगत सिंह और भीमराव अंबेडकर। इस गांधी को देखकर आजकल लोग कहते हैं मजबूती का नाम महात्मा गां-योगेन्द्र यादव

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