पर्यावरण संकट को अपना संकट समझें

Edited By ,Updated: 30 May, 2023 06:14 AM

treat the environmental crisis as your own crisis

मनुष्य अपने विकास के आरंभिक चरण में स्वयं को चराचर जगत का सहचर मानता था। उसके समस्त क्रियाकलापों प्रकृति के सामंजस्य में ही संचालित होते थे। आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह प्रकृति पर निर्भर था। भोजन, पानी, अन्न, वस्त्र, औषधियों एवं अन्य सामग्रियों की...

मनुष्य अपने विकास के आरंभिक चरण में स्वयं को चराचर जगत का सहचर मानता था। उसके समस्त क्रियाकलापों प्रकृति के सामंजस्य में ही संचालित होते थे। आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह प्रकृति पर निर्भर था। भोजन, पानी, अन्न, वस्त्र, औषधियों एवं अन्य सामग्रियों की पूर्ति खेतों एवं जंगलों से होती थी। फलत: वह प्रकृति को पूजने लगा। इसके साक्ष्य विश्वभर में हैं। वैदिक ऋषियों ने तो ‘माता भूमि पुत्रो अहम पृथिव्याम’ कहा। 

प्राचीन यूनान में भी बारिश, वायु एवं सूर्य आदि की पूजा होती थी। किन्तु यह प्रक्रिया शाश्वत नहीं रही। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के मूल में प्रकृति का अंधाधुंध दोहन छिपा था, जो शोषण का रूप लेता गया। भारत में जब औपनिवेशिक सत्ता कायम हुई तो शासन में सत्ता के विचार ही व्यवहार में ढले। फलस्वरूप जल, जंगल, जमीन को पूज्य न मानकर उपभोग वस्तु के रूप में देखना प्रारम्भ हुई। जंगल काटे गए, नदियों का मार्ग अवरुद्ध किया गया, फैक्टरियों से निकले अपशिष्ट एवं रासायनिक पदार्थों से जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण होती गई। बढ़ती जनसंख्या की खाद्य आपूर्ति हेतु खेतों में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ता ही गया। 

आवास हेतु जीवनदायी वृक्ष काटे एवं पहाड़ नष्ट किए गए। परिणामत: पर्यावरण प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन हमारे समक्ष विकराल वैश्विक समस्या बन गए। हमारे क्रियाकलापों के कारण विगत कुछ वर्षों से वैश्विक तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है। समुद्र के किनारे बसे देशों के तटीय क्षेत्र डूबने की कगार पर हैं। वहीं बाढ़, सूखा एवं चक्रवात की विभीषिका ने विश्व भर में पिछले पांच दशकों में 20 लाख से ज्यादा जिंदगियां छीनी हैं। दुष्परिणामों की बात करें तो पिछले दिनों उत्तराखंड का जोशीमठ धंस रहा था। यानी सम्पूर्ण शहर मानव जनित आपदा से नष्ट होने की कगार पर था। ग्लेशियर तीव्र गति से पिघल रहे हैं। बेमौसम बारिश ने अनाज, फलों एवं सब्जियों की फसलों को नष्ट किया। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए ऐसी परिस्थितियां अत्यन्त चिंतनीय हैं। 

विज्ञान पत्रिका ‘नेचर ईकोलॉजी एंड इवोल्यूशन’ में पिछले दिनों प्रकाशित रिपोर्ट सोचनीय है। अनुमानत: औसत वैश्विक तापमान में 1.5 से 2.5 डिग्री सैल्सियस की वृद्धि 15 से 30 प्रतिशत प्रजातियों हेतु खतरा उत्पन्न कर देगी। केवल वायु प्रदूषण से वर्ष 2019 में विश्व भर में 90 लाख से अधिक मौतें हुईं। दुनिया भर में 53 प्रतिशत झीलों का पानी तीव्र गति से सूख रहा है। एक ओर समय पर बारिश न होना एवं दूसरी तरफ झीलों, नदियों का सूखना यह संकेत है कि यदि हम सतर्क नहीं हुए तो जीवन बहुत कष्टप्रद हो जाएगा। 

सरकारी प्रयास जारी हैं, किन्तु प्रकृति की शुद्धता बनाए रखने का दायित्व क्या केवल सरकारों का ही है। जनसामान्य को भी अपने दायित्वों को गम्भीरतापूर्वक निभाना चाहिए क्योंकि हमारे ही उपभोग हेतु प्रकृति का शोषण होता है। अत: हमारा प्रयास होना चाहिए कि हमारे दैनिक क्रियाकलापों से प्रकृति को कम से कम हानि पहुंचे। अपने आसपास पौधारोपण का कार्य भी यदि हम करें तो कुछ वर्षों में हमारा पर्यावास हरा-भरा हो सकता है। पंजाब में ‘हरियालवी पंजाब’ नामक मुहिम चल रही है। इसके अंतर्गत प्रांत में पौधारोपण, उनकी देखभाल एवं किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाले देशी बीज देना शामिल है। इसके इतर पंजाब की मिट्टी एवं जल प्रदूषित न हो इस हेतु पॉलिथीन, खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग कमतर करने हेतु जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है। 

एक मुहावरा हम अक्सर प्रयोग करते हैं- ‘‘अपनी जड़ों की ओर लौटना।’’ इस संदर्भ में प्रकृति ही हमारी जड़ है। प्रसिद्ध विचारक रूसो ने इसे ‘बैक टू नेचर’ कहा है। तात्पर्य यह नहीं कि हम पुन: जंगल में रहने लगें। यह न अपेक्षित है और न ही संभव। आशय केवल इतना है कि हमारा जीवन अधिक प्राकृतिक हो। कृत्रिमता जितनी कम हो उतना ही मंगलकारी होगा। पशु-पक्षियों को हानि न पहुंचाएं। मिट्टी, जल एवं वायु को प्रदूषित न करें। 

जीवनदायी नदियों को हमने मां जैसा पवित्र माना है। रहीम ने ‘बिन पानी सब सून’ इस अर्थ में भी कहा था कि पानी हमारी अस्मिता एवं अस्तित्व है। पानी को प्रदूषित करना हमारे कुलषित मन का प्रतीक है। ऐसे में हमें सनातन परम्परा के उज्ज्वल पक्ष को स्मरण करना चाहिए। जिसमें मनुष्य होने का अर्थ अन्य मनुष्यों, प्रकृति  और सृष्टि के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाना है। वास्तविकता यह है कि हमारे जीवन का ध्येय पारिस्थितिक के साथ गहरा संबंध होना चाहिए क्योंकि हम परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है।

प्राकृतिक सुषमा, सौंदर्य को नष्ट करने के पश्चात यदि मनुष्य बचा भी रहा तो वह केवल प्रेतात्मा की तरह इधर-उधर भटकेगा। प्रकृति के रस एवं सुगंध से वह वंचित हो जाएगा। अत: पर्यावरण संकट को अपना संकट एवं धरती की व्यथा को हम अपनी व्यथा समझें। प्राकृतिक संसाधनों को मानव समाज का पोषक एवं संरक्षक मानकर संसाधनों का शोषण नहीं अपितु सदुपयोग करें।-राघवेंद्र प्रसाद तिवारी 
 

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!