आर्थिक विकास यात्रा में चीन से क्यों पिछड़ा भारत

Edited By Updated: 30 Oct, 2025 05:25 AM

why is india lagging behind china in its economic development journey

आज का कॉलम मेरे पिछले लेख ‘भारत की आर्थिक यात्रा-समाजवाद से आत्मनिर्भरता तक’ की अगली कड़ी है। तब मुझे व्यक्तिगत तौर पर कई पाठकों की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। उनमें से अधिकांश का लब्बोलुआब यह था कि भारत तरक्की तो कर रहा है लेकिन वह आज भी चीन से बहुत...

आज का कॉलम मेरे पिछले लेख ‘भारत की आर्थिक यात्रा-समाजवाद से आत्मनिर्भरता तक’ की अगली कड़ी है। तब मुझे व्यक्तिगत तौर पर कई पाठकों की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। उनमें से अधिकांश का लब्बोलुआब यह था कि भारत तरक्की तो कर रहा है लेकिन वह आज भी चीन से बहुत पीछे है। इसके तीन बड़े कारण हैं। 

एक-स्वतंत्र भारत अब भी औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेषों से जूझ रहा है, जो देश के नीतिगत निर्णयों और सार्वजनिक विमर्श को आज भी प्रभावित कर रहे हैं। दूसरा-आजादी के बाद से भारत वंशवादी राजनीति से ग्रस्त है, जो केवल कांग्रेस तक सीमित नहीं है। ऐसे दलों का एकमात्र उद्देश्य राष्ट्रहित न होकर जैसे-तैसे अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति करना होता है, चाहे इसके लिए देश की संप्रभुता, सुरक्षा, एकता और अखंडता की भी बलि चढ़ानी पड़े। तीसरा-विदेशी वित्तपोषित तथाकथित आंदोलनों, प्रदर्शनों और एन.जी.ओ. से देश की विकास यात्रा और सुधार कार्यों को रोकने की कोशिशें होती रही हैं। जाति-मजहब आधारित राजनीति, कृषि कानूनों का विरोध और नागरिकता संशोधन अधिनियम पर भ्रामक अभियान आदि, ये सब इसी प्रवृत्ति के उदाहरण हैं। 

वहीं चीन एक अपारदर्शी व्यवस्था है, जिसमें अधिनायकवादी साम्यवाद और बेलगाम पूंजीवाद का मिश्रण है। उसकी घरेलू-विदेश नीति (साम्राज्यवाद सहित) सभ्यतागत राष्ट्रवाद और विशुद्ध देशहित से प्रेरित है। अमरीकी विद्वान एडवर्ड फ्राइडमैन के शब्दों में, ‘चीन आज एक दक्षिणपंथी, जनवादी और अधिनायकवादी राष्ट्रवादी मशीन है।’ यह विडंबना है कि भारत में राष्ट्रवाद को ‘संकीर्णता’ या ‘सांप्रदायिकता’ कहा जाता है। चीन में क्षेत्रीय स्वायत्तता, मजहबी स्वतंत्रता, मानवाधिकार, पर्यावरण संरक्षण या व्यक्तिगत आजादी जैसे मूल्य तब तक स्वीकार्य हैं, जब तक वे उसके व्यापक लक्ष्यों में सहायक हैं। अगर कोई भी तत्व चीन के मकसद में बाधा बनता है, तो उससे सख्ती से निपटा जाता है। 

वर्ष 1985 में भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएं लगभग समान स्तर पर थीं। तब चीन के सर्वोच्च नेता देंग शियाओपिंग थे, जिन्होंने 1978 से सुधारों की दिशा तय की। उनके बाद जियांग जेमिन (1989-2002), हू जिंताओ (2002-2012) और पिछले 13 वर्षों से शी जिनपिंग सत्ता में हैं। यानी पिछले 40 वर्षों में चीन के केवल 4 शीर्ष नेता हुए, जिनके हाथ में देश का पूरा नियंत्रण रहा। इसके विपरीत भारत में इसी अवधि के दौरान 9 प्रधानमंत्री हुए। इनमें से कई का कार्यकाल अधूरा या निर्बल रहा। केवल राजीव गांधी (1984-89), पी.वी. नरसिम्हा राव (1991-96), अटल बिहारी वाजपेयी (1998-2004) और नरेंद्र मोदी (2014 से अब तक) ने ही प्रभावी शासन दिया। 

डॉ. मनमोहन सिंह का कार्यकाल (2004-2014) स्वतंत्र भारत का सबसे भ्रष्ट कालखंड है। उन्हें दिशा-निर्देश असंवैधानिक ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ से मिलते थे, जिसका नेतृत्व तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी कर रही थीं और जिसमें ऐसे लोग शामिल थे, जिनका देशहित से कम, अपने वैचारिक एजैंडों (वामपंथी सहित) से सरोकार अधिक था। वर्ष 2000 में चीन की अर्थव्यवस्था 1.2 ट्रिलियन डॉलर की थी, जो 2025 तक बढ़कर लगभग 19 ट्रिलियन डॉलर हो गई। यानी 25 वर्षों में 15 गुना वृद्धि। इसी अवधि में भारत की जी.डी.पी. लगभग आधी ट्रिलियन से बढ़कर 4.1 ट्रिलियन डॉलर हो पाई, लगभग 8 गुना वृद्धि। फोब्र्स पत्रिका ने 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया था कि 1985 में चीन और भारत दोनों की प्रति व्यक्ति आय (जी.डी.पी.) 293 डॉलर थी। फिर 4 दशकों में इतना भारी अंतर कैसे आ गया? इसका एक कारण दोनों देशों के बांध निर्माण में देखने को मिल जाता है। 

चीन ने यांग्त्जी नदी पर 22,500 मैगावाट क्षमता वाला ‘थ्री गॉर्जेस बांध’ लगभग एक दशक में पूरा कर लिया था। इससे 13 नगर, 140 कस्बे और 1,350 गांव डूब गए, तो लगभग 13 लाख चीनी विस्थापित हुए। भारत की गुजरात में सरदार सरोवर परियोजना, जिसकी क्षमता केवल 1,450 मैगावाट है और जिसने तुलनात्मक रूप से 178 गांवों के सीमित लोगों को प्रभावित किया- उसे पूरा होने में 56 वर्ष लगे। 1961 में पं. नेहरू ने इसका शिलान्यास किया था, जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने 2017 में उद्घाटन। इतना विलंब इसलिए हुआ, क्योंकि 1985 से मेधा पाटकर के नेतृत्व में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ ने पर्यावरण-मानवाधिकार की दुहाई देकर परियोजना को रोकने का प्रयास शुरू कर दिया था। इसमें भारतीय न्यायिक प्रक्रिया का भी दुरुपयोग किया गया। 

विडंबना यह रही कि बांध निर्माण रोकने वालों को देश-विदेश में नाम, सम्मान और पुरस्कार मिलते गए, यहां तक कि उन पर फिल्में भी बनीं। लेकिन जिन लाखों लोगों को पीने और सिंचाई के लिए नर्मदा के पानी का इंतजार था, वे दशकों तक उससे वंचित रह गए और पानी यूं ही अरब सागर में बहता रहा। 

यह साजिश सरदार सरोवर बांध तक सीमित नहीं है। वर्ष 2018 में स्टरलाइट कॉपर प्लांट (तूतीकोरिन) बंद ही हो गया था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि एक वर्ष में भारत, जो विश्व के शीर्ष तांबा निर्यातकों में था, वह शुद्ध आयातक बन गया। यह स्थापित करता है कि पर्यावरण-मानवाधिकार पर भ्रमजाल कैसे भारतीय आॢथकी को कमजोर करने के हथियार बनते हैं। बतौर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2012 में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र पर चल रहे विरोध के संदर्भ में कहा था-‘अधिकांश एन.जी.ओ., जो अमरीका से संचालित हैं, हमारे ऊर्जा कार्यक्रम से खुश नहीं हैं।’ ऐसी ही साजिश केरल के विङ्क्षझजम बंदरगाह आंदोलन में भी देखने को मिली थी। तब 2022 में मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा था कि यह विरोध ‘स्थानीय मछुआरों का नहीं, बल्कि सुनियोजित आंदोलन’ प्रतीत होता है। वर्ष 1984 में माक्र्सवादी नेता प्रकाश कारत ने चेताया था कि विदेशी धन प्राप्त करने वाले सभी संगठनों की जांच होनी चाहिए। 

क्या भारत और चीन के बीच विकास का अंतर समाप्त हो सकता है? क्या वर्ष 2047 तक भारत विकसित राष्ट्र बनने के लक्ष्य को पा सकता है? नि:संदेह भारतीय इसे प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं, क्योंकि भारत एक कालजयी सभ्यता है, जिसका वारिस होने के कारण स्वाभाविक रूप से उद्यमी, बुद्धिमान और परिश्रमी हैं। परंतु इसके लिए भारतीयों को अपने सभी निर्णय वंशवादी राजनीति और विचारधाराओं के झंझावत को भूलकर शुद्ध राष्ट्रहित और राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर लेने होंगे। क्या वर्तमान परिदृश्य में ऐसा संभव लगता है?-बलबीर पुंज
 

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