Chote Sahibzade Shaheedi Diwas: छोटे साहिबजादों और माता गुजरी के बलिदान की अमर गाथा, आज भी करती है आंखें नम

Edited By Updated: 25 Dec, 2025 08:33 AM

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Chote Sahibzade Shahidi Diwas: श्री गुरु गोबिंद सिंह जी धर्म, सत्य और न्याय के प्रहरी थे। वह ऐसे युग में डटे रहे, जब मुगल सत्ता अत्याचार, जबरन धर्मांतरण और भय के बल पर शासन कर रही थी। गुरु जी ने अन्याय के सामने झुकने के बजाय संघर्ष का मार्ग चुना।...

Chote Sahibzade Shahidi Diwas: श्री गुरु गोबिंद सिंह जी धर्म, सत्य और न्याय के प्रहरी थे। वह ऐसे युग में डटे रहे, जब मुगल सत्ता अत्याचार, जबरन धर्मांतरण और भय के बल पर शासन कर रही थी। गुरु जी ने अन्याय के सामने झुकने के बजाय संघर्ष का मार्ग चुना। उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि अत्याचारी सत्ता का अंत निश्चित है और सत्य की विजय अवश्यंभावी है।

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20 दिसम्बर, 1704 को गुरु जी ने श्री आनंदपुर साहिब छोड़ा तब उनके साथ उनका परिवार और कुछ गिने-चुने सिंह थे। मुगल और पहाड़ी राजाओं की संयुक्त सेना ने कसम तोड़ते हुए गुरु जी के काफिले पर आक्रमण कर दिया। अफरातफरी के दौरान उफान पर बह रही सरसा नदी को पार करते हुए गुरु जी का परिवार बिछुड़ गया। अनेक बहादुर सिंह शहीद हो गए, दुर्लभ ग्रंथ और अमूल्य खजाना नष्ट हो गया तथा बहुत कुछ सरसा की लहरों में समा गया।

इसी दौरान माता गुजरी जी अपने दोनों छोटे पोतों, बाबा जोरावर सिंह (8 वर्ष) और बाबा फतेह सिंह (5 वर्ष), के साथ अलग पड़ गईं। मार्ग में गुरु-घर का पूर्व रसोइया गंगू मिला, जो उन्हें अपने गांव सहेड़ी (खेड़ी) ले गया। माता जी के पास सोने-चांदी की कुछ मुद्राओं की थैली को देख गंगू की नीयत डोल गई। 

माता जी के सो जाने पर उसने उसे चोरी कर लिया। सुबह जब माता जी ने सहज भाव से पूछा कि क्या उसने थैली संभालकर रख दी है, तो गंगू उलटा भड़क उठा।

अपने अपराध को छिपाने और ईनाम के लालच में गंगू ने मोरिंडा की कोतवाली जाकर सूचना दे दी कि माता गुजरी जी और गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादे उसके घर में हैं। इस विश्वासघात के चलते माता जी और साहिबजादों को गिरफ्तार करके सरहिंद के सूबेदार वजीर खान के समक्ष प्रस्तुत किया गया।

कड़ाके की ठंड में उन्हें ‘ठंडा बुर्ज’ में कैद कर दिया गया। न उन्हें पर्याप्त भोजन दिया गया, न वस्त्र। उस बर्फीली रात में माता गुजरी जी अपने नन्हें पोतों को अपने स्नेह के आंचल में समेटे रहीं। वे उन्हें लोरियों के रूप में सिख इतिहास की गौरवगाथाएं सुनाती रहीं, ताकि उनके मन में भय नहीं, बल्कि साहस और विश्वास बना रहे।

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सुबह माता गुजरी जी ने दोनों साहिबजादों को तैयार किया और प्रेमपूर्वक समझाया, ‘‘तुम महान गुरु के शेर बच्चे हो। किसी भी भय, लालच या छल से विचलित मत होना। यदि धर्म और सत्य की रक्षा के लिए प्राण भी देने पड़ें, तो पीछे मत हटना।’’ दादी मां के ये शब्द नन्हें साहिबजादों के हृदय में फौलादी संकल्प बनकर उतर गए।

जब साहिबजादों को कचहरी ले जाया गया, तो सिपाहियों ने उन्हें झुककर सलाम करने को कहा, पर जिन बच्चों को जन्म से ही धर्म के लिए बलिदान की शिक्षा मिली हो, वे कैसे झुक सकते थे। वजीर खान ने उन्हें इस्लाम स्वीकार करने का लालच दिया : सुख-सुविधा, पद और वैभव का प्रलोभन भी दिया और न मानने पर भय दिखाया किंतु साहिबजादे अडिग रहे।

वजीर खान के सारे षड्यंत्र विफल हो गए। अंतत: क्रूर निर्णय लिया गया कि दोनों साहिबजादों को दीवार में जिंदा चिनवा दिया जाए।
यह सुनकर भी साहिबजादे तनिक विचलित नहीं हुए। उनके चेहरे पर भय नहीं, बल्कि अद्भुत शांति और मुस्कान थी। इस अमानवीय कृत्य के लिए जब कोई जल्लाद तैयार नहीं हुआ तो दिल्ली के शाही जल्लाद साशल बेग और बाशल बेग, जो कैद में थे, अपने स्वार्थ के लिए इस पाप को करने को तैयार हुए।

दीवार की चिनाई शुरू हुई। जैसे-जैसे दीवार ऊंची होती गई, मानो स्वयं ईंटें भी इस पाप में सहभागी बनने से इंकार कर रही हों, दीवार गिर पड़ी। अंतत: निर्दयी जल्लादों ने खंजर से गला रेत कर बेहोश साहिबजादों को शहीद कर दिया।  उधर, अपने लाडले पोतों की शहादत का समाचार सुनकर माता गुजरी जी ने भी उसी क्षण प्राण त्याग दिए। 

इसके बाद दीवान सेठ टोडर मल्ल जी ने अद्भुत श्रद्धा का परिचय दिया। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति देकर स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर भूमि खरीदी और माता गुजरी जी तथा छोटे साहिबजादों का अंतिम संस्कार किया। यह भूमि संसार की सबसे महंगी भूमि कहलाती है।  

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