मृत्यु: जीवन का उत्सव, ओशो की दृष्टि से

Edited By Updated: 30 Aug, 2025 01:42 PM

death is not the end

Death is not the end: जब हम चारों ओर देखते हैं तो मृत्यु की वास्तविकता बार-बार हमारे सामने आती है। कोई परिचित व्यक्ति चला जाता है। अख़बार और टीवी पर मृत्यु की ख़बरें आती हैं और भीतर एक असहजता जन्म लेती है। हम अक्सर मृत्यु से डरते हैं, उसे टालने या...

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Death is not the end: जब हम चारों ओर देखते हैं तो मृत्यु की वास्तविकता बार-बार हमारे सामने आती है। कोई परिचित व्यक्ति चला जाता है। अख़बार और टीवी पर मृत्यु की ख़बरें आती हैं और भीतर एक असहजता जन्म लेती है। हम अक्सर मृत्यु से डरते हैं, उसे टालने या भूलने की कोशिश करते हैं। ओशो कहते हैं, "मृत्यु जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। इसे जानने, स्वीकारने और जीने से ही जीवन का सार मिलता है।"

आज सुबह-सुबह ही एक फ़ोन आया। ख़बर थी कि मेरे एक प्रियजन का देहांत हो गया। पहले कभी ऐसी सूचना मुझे भीतर तक हिला देती थी, आंखों से आंसू अपने आप बह पड़ते थे। पर अब मृत्यु की खबर सुनकर मन उतना विचलित नहीं होता। दुख अवश्य होता है, स्मृतियां उमड़ती हैं परंतु कहीं भीतर से यह अनुभव आता है कि मृत्यु जीवन का सबसे निश्चित और स्वाभाविक सत्य है। यह कोई असामान्य घटना नहीं, बल्कि हर जीवित प्राणी का अनिवार्य अंत है।

ओशो ने कहा था—“मैं तुम्हें जीना नहीं, मरना सिखाता हूं।” 

उनका अर्थ यही था कि यदि हम मृत्यु को समझ लें और जीते-जी उसे स्वीकार कर लें, तो जीवन का वास्तविक रस अनुभव किया जा सकता है। मनुष्य मृत्यु से डरता है क्योंकि वह अज्ञात है क्योंकि समाज ने हमें मृत्यु को न देखने, न सोचने और न स्वीकारने की आदत डाल दी है। मृत्यु तो अंत नहीं, केवल परिवर्तन है। जैसे रात आती है और दिन समाप्त होता है, वैसे ही मृत्यु आती है और जीवन एक नए रूप में आगे बढ़ जाता है।

ओशो के आश्रम में मृत्यु को कभी शोक का अवसर नहीं माना गया। वहां किसी के निधन पर आंसू और विलाप नहीं, बल्कि गीत और नृत्य होता था। मृत्यु को वे अंतिम उत्सव कहते थे क्योंकि जिसने जीवन को प्रेम, ध्यान और नृत्य में जिया है, उसके लिए मृत्यु एक महान यात्रा का प्रारंभ मात्र है।

जीवन में ही मरना सीखने का तात्पर्य ओशो ने अहंकार से मुक्त होने में बताया। जब तक ‘मैं’ जीवित है, पीड़ा है। जब यह ‘मैं’ मिट जाता है, तो एक आध्यात्मिक मृत्यु घटती है और वही हमें स्वतंत्र कर देती है। ध्यान भी मृत्यु का पूर्वाभ्यास है। जब हम ध्यान में बैठते हैं, विचार लुप्त होते हैं, समय ठहर जाता है, अहंकार धीरे-धीरे शून्य होता है। यही अनुभव हमें सिखाता है कि मृत्यु शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं।

मृत्यु का स्मरण जीवन को और भी गहरा बनाता है। यदि हम जानते हैं कि मृत्यु कभी भी आ सकती है, तो हम हर पल को अधिक सजगता, प्रेम और कृतज्ञता के साथ जीते हैं। कल पर टालने की आदत कम हो जाती है। मृत्यु हमें यह सिखाती है कि जो पल हमारे पास है, वही अनमोल हैं।

समाज मृत्यु को छिपाता है। बच्चों और युवाओं को उससे दूर रखा जाता है लेकिन ओशो कहते हैं कि मृत्यु को समझना, देखना और स्वीकार करना चाहिए। इससे मनुष्य में करुणा आती है और जीवन के प्रति गहरी संवेदनशीलता भी।

ओशो का यह भी कहना था कि मृत्यु से डरना व्यर्थ है। मृत्यु शत्रु नहीं, मित्र है। यह जीवन की सबसे निश्चित घटना है। जिसने मृत्यु को मित्र बना लिया, उसके लिए जीवन का हर क्षण सुंदर और मुक्त हो जाता है। मृत्यु हमें यही सिखाती है- अहंकार छोड़ो, अतीत छोड़ो, भविष्य के भय को त्यागो और वर्तमान को जियो।

आज जब किसी प्रियजन की मृत्यु की सूचना मिलती है तो भीतर से यह अनुभव होता है कि यह अंत नहीं बल्कि एक नई यात्रा की शुरुआत है। मृत्यु केवल शरीर का परिवर्तन है। आत्मा तो सदा अजर-अमर है।

ओशो हमें मृत्यु को उत्सव की तरह स्वीकारना सिखाते हैं। वे कहते हैं कि जब मृत्यु आए, तो उसे गीत और नृत्य के साथ गले लगाओ। क्योंकि वही अंतिम मुक्ति है, वही सबसे बड़ा उत्सव है। मृत्यु हमें जीवन का सत्य सिखाती है और यह सत्य है—मृत्यु अंत नहीं, अनंत की ओर एक नया द्वार है।

- डॉ तनु जैन

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