पावन तीर्थ है कन्याकुमारी अंतरीप, यहां तीनों ओर सागरजल से घिरा है ये स्थान

Edited By Punjab Kesari,Updated: 27 Aug, 2017 11:29 AM

kanyakumari antarip

भारत की मुख्य भूमि का सबसे दक्षिणी छोर कुमारी अंतरीप के नाम से पूरे संसार में

भारत की मुख्य भूमि का सबसे दक्षिणी छोर कुमारी अंतरीप के नाम से पूरे संसार में प्रसिद्ध है। यह नाम वहां पर स्थित कन्याकुमारी तीर्थ के कारण है। यह स्थान एक धार्मिक स्थल के अलावा कई वजहों से महत्वपूर्ण है। तीनों ओर सागरजल से घिरा यह स्थान तीन सागरों का संगम स्थल भी है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर तथा दक्षिण में सुदूर दक्षिणी ध्रुव तक हिन्द महासागर का विशाल पारावार फैला है। अंतरीप के अग्रभाग में स्थित विवेकानंद शिला से अरब सागर की पीले और बंगाल की खाड़ी की नीले रंग की लहरें साफ-साफ दिखाई पड़ती हैं।

कन्याकुमारी तीर्थ भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में केरल की सीमा के पास सागर तट पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए सर्वाधिक सुविधाजनक पथ तिरुवनंतपुरम (त्रिवेन्द्रम) से कन्याकुमारी की रेल लाइन है। रेलपथ द्वारा दूसरा मार्ग चेन्नई से त्रिनलवेली होते हुए, मदुरै से गुजरता है। कन्याकुमारी रेलवे स्टेशन दक्षिण रेलवे का अंतिम स्टेशन है। त्रिवेन्द्रम से कन्याकुमारी की यात्रा रेल से की जाए अथवा बस से, रास्ते में हरे-भरे धान के खेत, नारियल, सुपारी, कटहल और काजू के वृक्षों की पंक्तियां देख कर मन प्रसन्न हो जाता है। रास्ते में छोटी-बड़ी कई सरिताएं हैं, साथ ही पूर्व और उत्तर की ओर लहराते सागर जल के दर्शन भी होते रहते हैं।

मुख्य मंदिर : कन्याकुमारी का मंदिर ऊंचे चौकोर पथरीले स्थान पर स्थित है जिसके तीन ओर सागर की फेनिल लहरें मचलती रहती हैं। दक्षिण भारत की परंपरा के अनुसार विशाल तथा कलात्मक गोपुरम् के साथ मुख्य मंदिर के चारों ओर ऊंची दीवार है जिसमें चार दिशाओं की ओर चार द्वार हैं जिनमें तीन द्वार ही खुले रहते हैं। सागर की ओर पूर्व दिशा का द्वार बंद कर दिया गया है। पूर्व की ओर का मुख्य द्वार बंद किए जाने के कारण के बारे में ऐसा बताया जाता है कि वहां पर समुद्र में कई चट्टानें उभरी हुई हैं जहां पर नाव चलाना संकटपूर्ण है। पुराने समय में जब यह विशाल द्वार खुला रहता था तो रात्रि में दूर से आते नाविकों को देवी के शृंगार और दीपों की रोशनी से भ्रम होता था और उनकी नावें चट्टानों से टकरा जाती थीं इसलिए पूर्व दिशा का दरवाजा बंद कर दिया गया है।

प्रस्तर खंडों से बने कलात्मक मंदिर के गर्भगृह में देवी कन्याकुमारी की आकर्षक सुंदर मूर्ति खड़ी है। पूर्व दिशा की ओर मुख किए कुमारी देवी के एक हाथ में माला है। कौमार्य के प्रतीक के रूप में नाक में हीरे की सीक तथा रत्नजड़ित नथ पहन रखी है। आरती के समय पूर्ण श्रृंगार के साथ इस दिव्य मूर्ति की शोभा अद्भुत होती है, विशेषकर नाक के हीरे की चमक दर्शकों को आकर्षित करती है। कन्याकुमारी के मंदिर के पास ही भद्रकाली का मंदिर है। भद्रकाली को कुमारी देवी की मुख्य सहेली कहा जाता है। इसकी गणना परंपरागत रूप में प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में की जाती है। इसी अहाते में दीवार के पास संकटमोचन हनुमान की मूर्ति है जो पूरे संकाय की सुरक्षा के लिए स्थित है। देवी कन्याकुमारी की आराधना अत्यंत प्राचीनकाल से होती आई है। महाभारत तथा पुराणों में भी इस पावन तीर्थ का उल्लेख मिलता है। सीता जी की खोज में भटकते श्रीराम भी यहां पहुंचे थे तो देवी ने गंधमादन पर्वत (आधुनिक रामेश्वरम् धाम) की ओर जाने का संकेत दिया था।

धार्मिक कथा : बाणासुर नामक दैत्य ने महादेव शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने वरदान मांगने के लिए कहा। मौका देखते ही बाणासुर ने अमर होने का वरदान मांग लिया। शिव जी ने ‘तथास्तु’ कहते हुए वचन दिया कि कुमारी कन्या के अलावा तुम्हारा कोई अहित नहीं कर सकेगा। वरदान प्राप्त होते ही बाणासुर निरंकुश तथा बड़ा उपद्रवी हो गया। उसके अत्याचारों से पूरे संसार में लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ऐसी स्थिति से रक्षा के लिए देवतागण विष्णु भगवान के पास पहुंचे। विष्णु ने देवताओं के साथ मिलकर त्रिभुवन की सुरक्षा के लिए यज्ञ किया।

उसी यज्ञ से एक अत्यंत सुंदर कन्या प्रकट हुई। यह कन्या महादेव शिव को प्राप्त करने के लिए दक्षिण तट पर तपस्या करने चली गई। उसकी आराधना से प्रसन्न होकर शिव ने पाणिग्रहण करना स्वीकार कर लिया। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई और सब तैयारियां पूरी हो रही थीं। अब देवताओं को चिंता हुई कि इस दिव्य कन्या का विवाह हो गया तो फिर बाणासुर नहीं मारा जाएगा क्योंकि वरदान के अनुसार वह केवल कुमारी कन्या के द्वारा ही मारा जा सकता था।ऐसी स्थिति में महामुनि नारद ने सहयोग प्रदान किया। शिवजी विवाह के लिए दक्षिण सागर तट की ओर चल पड़े थे। वहां पहुंचने से पहले ही शुचीन्द्रम नामक स्थल पर नारद जी ने शिव जी से मुलाकात की। इस मुलाकात में काफी समय लगा और विलंब के कारण विवाह का मुहूर्त निकल गया। 

विवाह टल जाने के कारण साथ लाई गई सारी सामग्री अक्षत, रोली, तिल आदि सागर में विसर्जित कर दी गई। ऐसी मान्यता है कि इन सामग्रियों के बिखेर देने से ही यहां पर सागर तट की बालुका राशि चावल के दाने की तरह काले और लाल रंग की हो गई है।
कुमारीकन्या महादेव शिव को प्राप्त करने के लिए पुन: तपस्या में लीन हो गई। इधर बाणासुर को उसके मनमोहक सौंदर्य की चर्चा सुनने को मिली। वह कुमारी देवी से विवाह की इच्छा लेकर वहां पहुंचा और प्रणय-निवेदन करने लगा। उसके बार-बार ऐसा करने से देवी की तपस्या भंग हुई और कुपित होकर देवी ने उस अत्याचारी दैत्य का वध कर डाला। बाणासुर के वध से सबको त्रण मिला और कुमारी कन्या देवी के रूप में पूजनीय बन गई। इस पावन तीर्थ पर आश्विन नवरात्रि के समय पूजा का विशाल उत्सव मनाया जाता है। कन्याकुमारी के मंदिर में प्रवेश के लिए पुरुषों को एक वस्त्र धोती धारण करना होता है। सिले हुए कपड़े पहन कर जाने पर प्रवेश नहीं मिलता।

विवेकानंद शिला :  कन्याकुमारी अंतरीप में देवी के मुख्य मंदिर के अलावा अन्य कई दर्शनीय स्थल हैं जिनमें विवेकानंद शिला उल्लेखनीय है। यह कन्याकुमारी क्षेत्र का नवीन आकर्षण केंद्र है। तट-भूमि से करीब पांच सौ मीटर की दूरी पर समुद्र में दो विशाल चट्टानें उभरी हुई हैं। वहां पहुंचने के लिए मोटरबोट तथा छोटी नौकाओं का प्रबंध है जो यात्रियों को केवल दस मिनट में ही सागर-यात्रा करा देती हैं। इस चट्टान पर देवी ने पहली बार तप किया था। वहां पर इनके चरण चिन्ह हैं जिसकी पूजा की जाती है। यह स्थान ‘श्री पाद पारै’ नाम से प्रसिद्ध है।

देवी के परमभक्त स्वामी विवेकानंद सन् 1892 में कन्याकुमारी पहुंचे थे। देवी के चरण चिन्हों के दर्शन की लालसा से प्रेरित विवेकानंद सागर में तैर कर उस चट्टान पर जा पहुंचे, जहां तीन दिनों तक समाधिस्थ रहकर अपना संपूर्ण जीवन मानव-सेवा में लगाने का पवित्र संकल्प लिया था। उन्हीं की स्मृति में बड़ी चट्टान के ऊपर स्मारक का निर्माण किया गया है। विवेकानंद स्मारक में तीन विशेषताएं हैं-प्रथम स्वामी जी की कलात्मक मूर्ति फिर ‘सभामंडल’ तथा शांतिदायक ‘ध्यान मंडप’। यहां ‘ऊँ’ के चतुर्दिक मंद नीला प्रकाश फैलता रहता है जहां ध्यान करने पर एक विशेष प्रकार की आनंददायक अनुभूति होती है।

कन्याकुमारी मंदिर के निकट ही थलभाग में दूसरा दर्शनीय स्थान है - ‘गांधी मंडप’। अंतरीप पर सागर-संगम में विसर्जित करने से पूर्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का अस्थि कलश यहां दर्शनार्थ रखा गया था। तीन मंजिल का यह मंडप वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। इसकी विशेषता है कि गांधी जयंती के दिन 2 अक्तूबर को, सूर्य की किरणें झरोखों से होकर उसी स्थान पर पड़ती हैं जहां अस्थि कलश रखा गया था। कुमारी अंतरीप की उल्लेखनीय नैसर्गिक विशेषता यह है कि यहां सूर्योदय और सूर्यास्त का मनमोहक दृश्य देखने को मिलता है। अद्भुत दृश्य पूर्णिमा की संध्या का होता है, जब पश्चिम में रक्ताभ सूर्य डूबता रहता है और पूर्व में सुनहरा चंद्रोदय होता है। पिछले कुछ वर्षों में यात्रियों की बढ़ती भीड़ के कारण कन्याकुमारी तीर्थ में राज्य तथा केंद्रीय पर्यटन विभागों के यात्री निवास के अलावा अनेक होटल तथा धर्मशालाओं का निर्माण हो चुका है जहां सब तरह की सुविधाएं उपलब्ध हैं।
 

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