आंखों की स्थिरता और मन की शांति, यही है आत्मा की अनुभूति का द्वार

Edited By Updated: 03 Jun, 2025 02:01 PM

maharishi patanjali

यदि हम अपनी आत्मा को एक सिक्के के रूप में माने जो की समुद्र रूपी चित्त के तल में स्थित है, तो समुद्र की सतह पर उठने वाली तरंगें उन वृत्तियों के समान हैं जो तल में स्थित सिक्के को नहीं देखने देती l अपने आत्म स्वरूप को देखने के लिए पहले आपको उन तरंगों...

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Maharishi Patanjali: यदि हम अपनी आत्मा को एक सिक्के के रूप में माने जो की समुद्र रूपी चित्त के तल में स्थित है, तो समुद्र की सतह पर उठने वाली तरंगें उन वृत्तियों के समान हैं जो तल में स्थित सिक्के को नहीं देखने देती l अपने आत्म स्वरूप को देखने के लिए पहले आपको उन तरंगों को शांत करना होगा, यही योग हैं l

ऋषि पतंजलि के शब्दों में , “तदा द्रष्टुः  स्वरूपे अवस्थानं ” ll १.३ ll ,तब द्रष्टा की अवस्था अपने स्वरूप में स्थित होती हैं l

मनुष्य सोते जागते प्रति-क्षण इंद्रियों के भोगों के पीछे भाग रहा हैं। सुप्त अवस्था में भी आंखों की पुतलियों का स्थिर न होना, इस बात की पुष्टि करता है l हम में  से बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि हमारे शरीर में सबसे क्रियाशील मांसपेशी हृदय नहीं बल्कि आंख की मांसपेशियां हैं। आंखें तभी स्थिर होती हैं जब आपका  मनस और इन्द्रियां स्थिर हों l ऐसी स्थिति में आपको सूक्ष्म जगत के कुछ ऐसे अनुभव होते हैं जो सामान्य बुद्धि और पांच इंद्रियों से परे हैं। 

अविद्या का नाश होता है तथा दृष्टि अपने स्वरूप में स्थित हो जाता हैं l द्वैतवाद, जो दोषों के कारण होता हैं, वह दूर हो जाता हैं तथा सब कुछ उस एक तत्त्व में समाहित हो जाने के कारण सत्य का ज्ञान होता है। सत्य एक हैं परन्तु अविद्या के कारण भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होता है। इस स्थिति में साधक को अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव होता है, अतः आत्म साक्षात्कार की प्राप्ति होती है। जब तक चित्त की वृत्तियां रहती हैं तब तक आत्मा इंद्रियों के विषयों से बंधी रहती हैं। वृत्तियां इंद्रियों के माध्यम से कार्य करती हैं तथा चित्त को एक के बाद एक, इच्छाओं में प्रवत्त रखती हैं। यह वृत्तियां चेतना के तीन स्तरों पर काम करती हैं- चैतन्य, अचैतन्य और अवचैतन्य।

अतः योग का सम्बन्ध न तो मेडिटेशन से है, जिसमे चेतन मनस के प्रयोग द्वारा किसी एक वस्तु विशेष का आलम्बन किया जाता है, न ही ये कोई सम्मोहन क्रिया है जो कि अवचैतन्यता पर आधारित है क्योंकि ये दोनों ही चित्त के वृत्ति युक्त होने की प्रक्रियाएं हैं। योग, गुरु सानिध्य  में, अपनी वृत्तियों को अभ्यास द्वारा स्थिर करना हैं, तब चेतना की चौथी अवस्था क्रियाशील होती हैं जिसे वैदिक ऋषियों ने सिद्ध किया और जिसे आधुनिक विज्ञान अभी तक समझ नहीं पाया हैं- परम चैतन्य या तुरिया अवस्था l आत्म अनुभूति और अभूतपूर्व सामर्थ्य जो हमारे भीतर है, इसी स्थिति में निहित है।


 

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