Sant Meera Bai Story- श्री कृष्ण दीवानी मीराबाई की अमर प्रेम कहानी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Oct, 2022 07:17 AM

sant meera bai story

क्ति और प्रेम के अद्भुत मेल की मिसाल भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त तथा निश्छल भक्ति रूपी गगन में ध्रुव तारे की भांति अडिग एक दिव्य नाम है चिरवंदनीय ‘मीराबाई’ जी का, जो एक आध्यात्मिक कवयित्री होने के साथ-साथ अध्यात्म पथ का

 
Meerabai jayanti 2022- भक्ति और प्रेम के अद्भुत मेल की मिसाल भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त तथा निश्छल भक्ति रूपी गगन में ध्रुव तारे की भांति अडिग एक दिव्य नाम है चिरवंदनीय ‘मीराबाई’ जी का, जो एक आध्यात्मिक कवयित्री होने के साथ-साथ अध्यात्म पथ का अनुसरण करने वाले पथिकों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने अपने चरित्र से सार्थक किया कि प्रेम विहीन भक्ति सदैव अधूरी है।
 
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Mirabai Biography- निश्छल प्रेम आत्म तत्व की रचना है, जिसे मीरा जी ने अनुभव किया। कलिकाल में प्रेमाभक्ति को चरमोत्कर्ष प्रदान करने वाली दिव्य ऊर्जा माता मीरा के निश्चल प्रेम को शब्दों में व्यक्त करते हुए शब्द भी नि:शब्द से हो जाते हैं :

Meera bai life story- प्राकट्य : ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सन् 1498 ईस्वी के करीब जोधपुर के चोकड़ी नामक ग्राम में मेड़ता राजस्थान के राठौर श्री रतन सिंह घर संत आत्मा श्री मीरा देवी का जन्म हुआ था।
 
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Meera bai history
कृष्ण भक्ति में रुचि

इनकी माता जी योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की उपासक थीं। माता के संग बचपन से ही श्रीकृष्ण का गुणगान श्रवण करते-करते इन्हें श्रीकृष्ण चरणों से अनुराग बाल्यकाल से ही हो गया था पर भगवान कृष्ण संग आत्मिक संबंध का बीज बालहृदय पर उस समय अंकुरित हुआ, जब वह अपनी माता के संग पड़ोस की एक कन्या के विवाह में गई।

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Sant Meera Bai Story- वहां वर-वधू को सजा संवरा देख कर मीरा जी ने अपनी मां से पूछा मेरा पति कौन है? मां ने मुस्कुराते हुए भगवान कृष्ण की मूर्ति उठाकर हंसते हुए मीरा के हाथ में थमा कर कहा यह तेरा पति है। मां के वचन मीरा के हृदय में अंकित हो गए। अब भोर काल से ही भगवान कृष्ण की सेवा-उपासना करना मानो मीरा जी का नित्य-नियम और धर्म बन गया। सांस-सांस में श्रीकृष्ण का स्मरण करने वाली मीरा ज्यों-ज्यों बढ़ रही थीं उनके अंत:करण में श्री कृष्ण के प्रति भाव भक्ति भी बढ़ रही थी।

विवाह  
मीरा जी के पिता ने इनका विवाह संस्कार 13 वर्ष की आयु में उदयपुर के राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र महाराज कुमार भोजराज के साथ किया। एक किंवदंती के अनुसार जब इनका विवाह हुआ तो फेरों की विधि के समय मीरा जी ने भगवान कृष्ण की वही मूर्ति  अपने वक्ष से लगाए रखी।

विवाह संस्कार संपन्न हुआ, मीरा जी ससुराल आईं तो पति महाराज भोजराज से भेंट हुई। मीराबाई जी ने पति से कहा कि आप मात्र मेरे तन के स्वामी हैं, मेरी आत्मा के स्वामी तो भगवान श्री कृष्ण हैं।

‘जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई’।  

वही मेरे आत्मापति हैं। आरंभ में तो महाराज भोजराज ने मीरा जी के इन भावों को गंभीरता से नहीं लिया किन्तु धीरे-धीरे इनका भक्ति भाव राज घराने की आंखों में खटकने लगा, किंतु मीरा जी की भक्ति में जरा भी अंतर नहीं आया। इनके पति कुछ वर्षों बाद ही संसार को छोड़ गए, ऐसे में मात्र भगवान कृष्ण ही इनके एकमात्र सहारा थे ।  

विधवा होने पर भी मीरा जी ने शृंगार नहीं त्यागा, वह तो अपने आत्मापति श्री कृष्ण के लिए शृंगार करती थीं। मीरा जी ठाकुर द्वारे में जाकर भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख लोक लाज और मिथ्या आडम्बरों से दूर हो पैरों में घुंघरु बांधकर करताल बजा-बजाकर नृत्य करती हुई निज भावों को गातीं :
पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे । लोग कहै मीरां भई रे बावरी, सास कहै कुलनासी रे।।

इस प्रकार अपनी प्रेम जनित अश्रुधारा से भगवान श्री कृष्ण के चरणों को पखारती थीं। यह सब राज घराने की मर्यादा के विपरीत था। परिवार वालों ने इनके भक्ति भाव को भक्ति न जानकर कुल मर्यादाओं में सेंध समझा। मीरा को कुटुंबजनों के अनेकों अमर्यादित कटु वचनों को ही नहीं सुनना पड़ा, बहुत दुर्व्यवहार भी सहना पड़ा। इन्हें मारने के लिए राणा ने विष भेजा। उन्होंने अपने ही मुख से कहा :
विष का प्यालो राणाजी भेज्यो, पीवत मीरा हांसी रे।।

श्री कृष्ण कृपा से विष भी अमृत समान हो गया जिससे मीरा की भक्ति को और अधिक बल मिला परन्तु परिवार के बुरे व्यवहार से तंग आकर मीरा जी ने समकालीन कवि तुलसीदास जी को एक पत्र लिखा, जिनसे वह अपने भक्ति पथ के विषय में मार्गदर्शन चाहती थीं। तुलसीदास जी ने मीरा जी के पत्र का जवाब देते हुए कहा :
जाके प्रिय न राम वैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जधपि परम सनेहा ।।
नाते सबै राम के मनियत सहृदय सुसंख्य जहां लौ।
अंजन कहा आंखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।


तुलसीदास जी का पत्र पढ़कर मीरा जी हाथ में एकतारा लेकर  ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोय’ गाती हुई द्वारिका और वृंदावन गई।

मीरा जी की कविताएं और रचनाएं
मीरा जी की ग्रंथ रचनाएं, कविताएं और गीतों का संकलन दर्शाता है कि उस समय नारी की शिक्षा स्थिति अति उत्तम थी। उनके द्वारा साहित्य से सुसज्जित माधुर्य भाव सहित रचित मुख्य चार ग्रंथ हैं (1). गीता गीत गोविंद टीका, (2). बरसी मायरा, (3). राग गोविंद  तथा (4). राग सोरठ पद आदि।

उनके गीतों के संकलन के रूप में ‘मीराबाई की पदावली’ आत्म अभिव्यक्ति से ओत प्रोत अत्यधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इनके गीत, आध्यात्मिक कविताएं और ग्रंथ रचनाएं उनके श्रेष्ठ सरल व्यक्तित्व, त्याग, करुण स्वभाव तथा समर्पण, सौहार्द और निश्छल दृढ़ प्रेमाभक्ति भाव को स्पष्ट दर्शाते हैं।

The inspiring story of Devotional Poet Meera Bai- संसार विरक्ति तथा सामाजिक विरोध
श्री कृष्ण की भक्ति में मीरा जी को संसार से पूर्ण वैराग्य हो गया था। नारी होने के कारण प्रेमाभक्ति पथ पर आगे बढ़ते हुए सामाजिक विरोध भी उनके लिए एक बड़ी चुनौती था परंतु मीरा जी के उच्च चरित्र, संयम, धैर्य और ज्ञान भक्ति प्रकाश से समाज की जटिल, आधारहीन, भक्ति बाधित, कुंठित मानसिकता के अज्ञान रूपी बादलों को छंटने पर विवश होना पड़ा।

विरक्त भाव से सुसज्जित होकर वह जहां भी गईं, वहीं श्री कृष्ण प्रेम की वर्षा होने लगी। मीरा रचित एक-एक पद उनकी श्रीकृष्ण प्रीति का संदेश है। प्रेमयोगिनी मीराबाई के स्नेहपूरित पावन गायन, उनके स्मरण, उनके चिंतन आज भी भागवदभक्तों को आनंद दान दे रहे हैं।

संतों का अनुसरण
मीरा जी जिस मार्ग से जातीं वहां संतों-संग सत्संग करतीं तथा ज्ञान धारा में डुबकी लगातीं और आगे बढ़ती रहती थीं। जैसे नदियां समुद्र से मिलन की आस में निरंतर बहती रहती हैं वैसे ही मीरा अपने प्रिय कृष्ण से मिलने को आतुर हुई आगे ही आगे बढ़ती जाती थीं। श्री गुरू रविदास जी से मंत्र दीक्षा ग्रहण करके मीरा जी साधना से समाधि की अनंत भक्ति यात्रा की और अग्रसर हुई।

परलोक गमन
इतिहास में इस विषय में स्पष्ट उल्लेख नहीं है लेकिन अनुमानित है कि लगभग 1546 ईस्वी में अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में मीरा जी द्वारकापुरी पहुंचीं, जहां वह अपने सांस-सांस  में श्रीकृष्ण को भजतीं, कृष्ण को ही सिमरतीं और कृष्ण को ही गुनगुनाया करती थीं। ‘संत मंथन’ सारानुसार एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में बहुत तेज आंधी-तूफान के चलते हुए मीरा जी की कुटिया में जगते हुए दीए से आग लग गई। कृष्ण प्रेम और ध्यान में मग्न श्री मीरा जी को उस दिन के बाद किसी ने नहीं देखा।

कहा जाता है कि मीरा जी सशरीर ही श्री कृष्ण के विग्रह में समा गईं।  इस प्रकार मीराबाई आत्मज्योति और परमज्योति के मिलन का उदाहरण बन गईं।

साधारण-सी दिखने वाली कन्या असाधारण निश्छल भक्ति का उदाहरण बनकर संसार में अमिट छाप छोड़ गईं। उनके श्रेष्ठ व्यक्तित्व ने स्पष्ट कर दिया कि जीव के अपने ही कर्म  जीव की गति मुक्ति सुनिश्चित करते हैं। मीरा जी ने अपने जीवन जीने की शैली से यह समझाया कि आत्मा और देह भिन्न हैं और भिन्न होते हुए भी एक हैं।

मीरा जी ने भक्ति का मार्ग विवशता में नहीं अपनाया था क्योंकि उनके ग्रंथों में यह शिक्षा है कि विवशतार्वक भक्ति मार्ग को अपनाने वाला एक समय में आकर इस मार्ग से अवश्य भटकता है, किंतु ईश्वर अनुरागी जीव जब निज समर्पण कर आत्म चेतना जागृत हेतु प्रभु का शरणागत होता है तो वह सदैव प्रभु चरणों का अनुरागी बना रहता है और भक्ति मार्ग पर निर्भय होकर चलता है।

मीरा जी ने अपने व्यक्तित्व से स्पष्ट किया कि भक्त का भगवान संग सुंदर निर्मल निश्छल संबंध ही भक्ति भाव को दृढ़ता देता है। वास्तव में प्रेमाभक्ति मुक्ति की युति है। भक्ति मार्ग सांसारिकता प्राप्ति का मार्ग नहीं है, संसार में रहते हुए सांसारिक पदार्थों से विमुख होकर आत्म कल्याण का प्रकाशमय पथ है जिसे संतजन दीपक की भांति अपने ज्ञान से आलोकित करते हैं।
 
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