Smile please: न दुख दो, न दुख लो

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 16 May, 2023 10:02 AM

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सुख और दुख जीवन के दो ऐसे विशिष्ट पहलू हैं, जिन पर भारत के ऋषि-मुनियों एवं विद्वान-पंडितों ने बहुत गंभीर चिन्तन किया है। यह एक सर्वसिद्ध तथ्य है कि विश्व का कोई

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Smile please: सुख और दुख जीवन के दो ऐसे विशिष्ट पहलू हैं, जिन पर भारत के ऋषि-मुनियों एवं विद्वान-पंडितों ने बहुत गंभीर चिन्तन किया है। यह एक सर्वसिद्ध तथ्य है कि विश्व का कोई भी प्राणी दुख नहीं चाहता, पर वह उसे मिलता अवश्य है। इसी तरह सभी प्राणी सुख चाहते हैं और उसे पाने के लिए जीवन भर निरन्तर प्रयत्नशील नजर आते हैं, फिर भी सच्चे सुख की अनुभूति विरले महापुरुषों के अतिरिक्त किसी को हो नहीं पाती।  

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बड़े-बड़े विचारक महापुरुषों ने इसी एक प्रश्न पर अपना जीवन समर्पित कर दिया, परन्तु फिर भी वे इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाए। भला ऐसा क्यों ? आमतौर पर लोग समझते हैं कि पाप के फलस्वरूप अथवा ईश्वरीय कोप के कारण दुख आते हैं, परन्तु वास्तव में यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं।  

शास्त्रकारों के मतानुसार कर्मों का हिसाब-किताब बड़ा ही अटल है इसलिए, मनुष्य को कोई छोटा-मोटा विकर्म करने से भी बचकर रहना चाहिए क्योंकि जितना सूक्ष्म अथवा घोर कर्म होता है उतना ही सूक्ष्म उसका दण्ड अथवा भोग भी अवश्य ही भोगना पड़ता है इसीलिए देखा जाता है कि अन्य किसी को दुख देने के बदले में हमें स्वयं ही दुख पाना पड़ता है।
 
अत: हमें स्वयं को सुखदाता परमात्मा का बालक समझकर, स्वयं अपने मन में सुखी होकर अन्य सभी को भी सुखी करने की सेवा में तत्पर रहते हुए, स्थूल और सूक्ष्म विकर्मों से खुद को सदा बचाकर रखना चाहिए।

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न किसी को दुख देना चाहिए और न ही किसी से दुख लेना चहिए। यदि कोई मनुष्य, अन्य किसी को दुखी देखकर स्वयं भी दुख के प्रभाव में आ जाता है और फिर दुख का हाल सुनाकर अन्य किसी को भी दुखी करता है, तो उस मनुष्य की अवस्था को ज्ञानमय अवस्था नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो ज्ञानी मनुष्य है, वह सदा साक्षी, शांतचित्त और हर्षितमुख होकर स्वयं भी अतीन्द्रिय सुख में रमण करता है और अपने ज्ञान के बल से दूसरों की सेवा करके उनके दुखों को भी मिटा देता है।
 
सामान्यत: लोग समझते हैं कि दूसरों को दुखी देखकर यदि हमारा मन भी दुखी हो उठता है तो यह तो अच्छा है परंतु वास्तव में ज्ञानवान वह है जिसके मन में दूसरों के लिए करुणा और प्रेम तो हो और वह उनकी तन, मन, धन या ज्ञान से सेवा भी करता रहे, परंतु वह स्वयं दुखी नहीं हो।

लोककल्याण का ख्याल रखते हुए जब वह कर्म करता है, तो उसके मुख पर मुरझाहट अथवा चित्त में ग्लानि नहीं हो सकती। वह मन ही मन यह समझता है कि ‘मेरे दुख का प्रवाह (प्रभाव) अथवा चिन्ह देखकर दूसरों का यदि मेरे प्रति संकल्प चलेगा तो उनका मेरी तरफ ध्यान खिंच जाएगा और वे मुझे खुश करने के लिए जो स्थूल या सूक्ष्म पुरूषार्थ करने लग पड़ेंगे, उसका बोझ भी मुझ पर चढ़ जाएगा। इस प्रकार मेरे कारण उनका भी अमूल्य समय व्यर्थ हो जाएगा।’

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इसलिए वह किसी की सहानुभूति का पात्र बनने की बजाय अपने जीवन में ज्ञान की धारणा करके दुख के कांटों को हमेशा के लिए अपने जीवन से निकाल देता है। स्मरण रहे! स्वयं दुख से छूटने और दूसरों को सुखी करने का पुरूषार्थ बहुत ही सूक्ष्म पुरूषार्थ है।
 
अत: शान्ति के सागर एवं आनंद के सागर परमात्मा के साथ यदि हम अपने बुद्धियोग की सूक्ष्म तारें जोड़ेंगे, तो हम शान्ति और आनन्द का प्रवाह सरलता से पकड़ सकते हैं और उस प्रवाह के माध्यम द्वारा हम अनेकों के जीवन में सुख और शांति लाने की महान सेवा कर सकते हैं। तो आइए, आज से हम सभी सुख देने और सुख लेने की सेवा में लग जाएं और दुख लेने व दुख देने के विकर्म से स्वयं को मुक्त करें।

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