Edited By Jyoti,Updated: 08 Oct, 2021 12:52 PM
जो इंद्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इंद्रिय संयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है वह मनुष्य स्थिर बुद्धि कहलाता है। श्लोक में बताया गया है कि योग सिद्धि की
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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
सीखें ‘इंद्रियों’ को वश में रखना
तानि सर्वाणि संय य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
अनुवाद एवं तात्पर्य : जो इंद्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इंद्रिय संयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है वह मनुष्य स्थिर बुद्धि कहलाता है। श्लोक में बताया गया है कि योग सिद्धि की चरम अनुभूति कृष्ण भावनामृत ही है। जब तक कोई कृष्णभावना भावित नहीं होता तब तक इंद्रियों को वश में करना संभव नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, दुर्वासा मुनि का झगड़ा महाराज अ बरीष से हुआ क्योंकि वह गर्व वश महाराज अ बरीष पर क्रुद्ध हो गए जिससे अपनी इंद्रियों को रोक नहीं पाए।
दूसरी ओर राजा मुनि के समान योगी न होते हुए भी श्री कृष्ण का भक्त था। उसने मुनि के सारे अन्याय सह लिए जिससे वह विजयी हुआ। राजा अपनी इंद्रियों को वश में कर सका क्योंकि उसमें नि न गुण थे, जिनका उल्लेख श्रीमद्भागवत में हुआ है:
‘‘राजा अ बरीष ने अपना मन भगवान श्री कृष्ण के चरणों पर स्थिर कर दिया, वाणी भगवान के धाम की चर्चा करने में लगा दी, कानों को भगवान की लीलाओं के सुनने में, हाथों को भगवान का मंदिर साफ करने में, आंखों को भगवान का स्वरूप देखने में, नाक को भगवान के चरणों पर भेंट किए गए फूलों की गंध सूंघने में, अपनी जीभ को उन्हें अॢपत तुलसी दलों का स्वाद करने में, अपने पांवों को जहां-जहां भगवान के मंदिर हैं उन स्थानों की यात्रा करने में, अपने सिर को भगवान को नमस्कार करने में तथा अपनी इच्छाओं को भगवान की इच्छाओं को पूरा करने में लगा दिया और इन गुणों के कारण वह भगवान के अनन्य भक्त बनने के योग्य हो पाए।’’