Edited By Prachi Sharma,Updated: 28 Jan, 2024 08:52 AM

समस्त इंद्रिय विषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य में केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोक कर और इस तरह मन, इंद्रियों
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स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः:।पानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥5.27॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः:
विगतेच्छाभयक्रोधो यः: सदा मुक्त एव स:॥5.28॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : समस्त इंद्रिय विषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य में केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोक कर और इस तरह मन, इंद्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है, वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।

मनुष्य भक्ति करता है तो वह दिव्य स्थिति को प्राप्त होता है और कर्म क्षेत्र में भगवान की उपस्थिति का अनुभव करने योग्य हो जाता है। यह विशेष स्थिति मुक्ति कहलाती है। मुक्ति विषयक उपर्युक्त सिद्धांतों का प्रतिपादन करके श्री भगवान अर्जुन को यह शिक्षा देते हैं कि मनुष्य किस प्रकार अष्टांगयोग का अभ्यास करके इस स्थिति को प्राप्त होता है। यह अष्टांगयोग आठ विधियों में विभाजित है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि।

छठे अध्याय में योग के विषय में विस्तृत व्याख्या की गई है। पांचवें अध्याय के अंत में तो इसका प्रारंभिक विवेचन ही दिया गया है। योग में प्रत्याहार विधि से शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गंध का निराकरण करना होता है और तब दृष्टि को दोनों भौंहों के बीच लाकर अधखुली पलकों से उसे नासाग्र पर केंद्रित करना पड़ता है।
आंखों की पूरी तरह बंद करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि तब सो जाने की संभावना रहती है। न ही आंखों को पूरा खुला रखने से कोई लाभ है क्योंकि तब तो इंद्रिय विषयों द्वारा आकृष्ट होने का भय बना रहता है। नथुनों के भीतर श्वास की गति को रोकने के लिए प्राण तथा अपान वायुओं को सम किया जाता है। ऐसे योगाभ्यास से मनुष्य अपनी इंद्रियों के ऊपर नियंत्रण प्राप्त करता है।
