कौन थी कुब्जा, श्री कृष्ण से क्या था इनका रिश्ता?

Edited By Jyoti,Updated: 04 Jan, 2020 01:53 PM

what is relation between sri krishna and kubja

श्री कृष्ण का नाम है इतना मनमोहक हैं कि इसके जुबां पर आते ही इंसान अपने समस्त प्रकार के दुख-दर्द भूला कर इनकी लुभावनी सूरत में खो जाता है।

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श्री कृष्ण का नाम है इतना मनमोहक हैं कि इसके जुबां पर आते ही इंसान अपने समस्त प्रकार के दुख-दर्द भूला कर इनकी लुभावनी सूरत में खो जाता है। अगर हिंदू धर्म के ग्रंथों की बात करें तो इसमें इनके स्वरूप का किया वर्णन उपरोक्त लिखी बात का बहुत अच्छे से प्रमाण देती है। यही कारण है बचपन से ही श्री कृष्ण सब के प्रिय थे, गोकुल गोपियों से लेकर वहां की वृद्ध स्त्रियों के लिए श्री कृष्ण बहुत खास थे। कायदा से देखा जाए तो श्री कृष्ण की एक मां थी देवकी तो दूसरी यशोदा। परंतु गोकुल में अन्य रहने वाली वृद्ध महिलाएं भी इन्हें पुत्र की तरह स्नेह करती थी। इतना ही नहीं श्री कृष्ण अपने जीवन काल में जहां-जहां रहे उन्होंने सबसे प्रेम व स्नेह पाया। आज आपको इनके प्रति प्रेम रखने वाली ऐसी ही एक स्त्री के बारे में बताने जा रहे हैं जिनका वर्णन पौराणिक कथाओं में अच्छे से मिलता है।
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दरअसल हम बात कर रहे हैं कंस की नगरी मथुरा में रहने वाली कुब्जा नामक स्त्री की, जो कंस की दासी थी। वे नित्य कंस के लिए चंदन, तिलक तथा फूल इत्यादि का संग्रह करती थी। अपने प्रति कुब्जा की इस असीम प्यार व श्रद्धा को देखकर कंस भी अति प्रसन्न था। कहा जाता है कि कुब्जा को बहुत कम लोग जानते थे इनके कुब्ड़े होने के कारण ही इन्हें कुब्जा का नाम दिया गया। पौराणिक कथाओं के अनुसार कंस के वध के दौरान श्री कृष्ण की कुब्जा से मुलाकात हुई थी जिसके बाद उनके यानि कुब्जा के साथ उनकी प्रेम-क्रीड़ाएं शुरू हुई। आइए जानते हैं संपूर्ण कथा के बारे में-

एक बार की बात है भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि एक कुबड़ी स्त्री अपने हाथ में चंदन, फूल और हार इत्यादि लेकर बड़े प्रसन्न मन से जा रही है। तब श्रीकृष्ण ने उससे प्रश्न किया- “ये चंदन व हार फूल लेकर इतना इठलाते हुए आप कहां जा रही है और आप कौन है?”

तो कुब्जा ने श्री कृष्ण के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि, “मैं कंस की दासी हूं। मेरे कुबड़ी होने के कारण सब मुझको कुब्जा कहते हैं।”

मैं ये चंदन, फूल हार आदि लेकर अपने महाराज कंस के पास जा रही हूं। मैं नियमित रूप से ऐसा करती हूं और उन्हें ये सारी सामग्री प्रदान करती हूं जिससे वे अपना श्रृंगार आदि करते हैं। ये सुनते श्रीकृष्ण ने कुब्जा से आग्रह करने लगे कि- “आप ये चंदन मुझे लगा दीजिए और  ये फूल, हार हमें चढ़ा दो”। जिसके लिए कुब्जा ने साफ़ इन्कार कर दिया हुआ कहा कि “नहीं, ये तो केवल मेरे महाराज कंस के लिए हैं।
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मैं इन्हें किसी और को अर्पित नहीं कर सकती है। कथाओं मे किए वर्णन के अनुसार  जो लोग आस-पास खड़े होकर एकत्रित होकर ये संवाद देख-सुन रहे थे। वे सब मन ही मन सोच रहे थे कि ये कुब्जा कितनी जाहिल गंवार है।

साक्षात भगवान उसके सामने खड़े हैं और वे उनके आग्रह को ठुकरा रही है। वहां मौज़ूद सभी लोग कुब्जा के बारे में सोच रहे थे कि वे इतना भाग्यशाली अवसर अपने हाथ से गंवा रही है। कम लोगों के जीवन में ऐसा सुखद अवसर आता है। और वो है कि श्री कृष्ण को छोड़कर फूल माला व चंदन पापी कंस को चढ़ाने जा रही है।

लेकिन अब उसमें कुब्जा का भी क्या दोष था। वह तो वही कर रही थी, जो उसके मन में छुपी वृत्ति उससे करा रही थी। परंतु अब श्रीकृष्ण भी ठहरें हठीं, लगे बार-बार उनसे आग्रह करने। अंतः वो कुब्जा को मनाने में कामयाब हो गई और कुब्जा उनका श्रृंगार करने के लिए तैयार हो गई। किंतु क्योंकि वो कुबड़ी थी इसलिए वे प्रभु के माथे पर तिलक नहीं लगा पा रही थी। कुब्जा की इस व्यथा को देख श्रीकृष्ण ने उसके पैरों के दोनों पंजों को अपने पैरों से दबाकर हाथ ऊपर उठवाकर ठोड़ी को ऊपर उठाया तो कुब्जा का कुबड़ापन ठीक हो गया।

जिसके बाद कुब्जा श्री कृष्ण के माथे पर तिलक लगाने में सफल हुई। कुब्जा के बहुत आमंत्रित करने पर कृष्ण ने उसके घर जाने का वचन देकर उसे विदा किया। कहा जाता है कालांतर में कृष्ण ने उद्धव के साथ कुब्जा का आतिथ्य स्वीकार किया। इतना ही नहीं श्री कृष्ण ने कुब्जा के साथ प्रेम-क्रीड़ाएं भी कीं। कुब्जा ने श्री कृष्ण से ये वर भी मांगा कि वे चिरकाल तक उसके साथ वैसी ही प्रेम-क्रीड़ा करते रहें।
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