भारत-पाकिस्तान युद्ध में कितने चेहरे बेनकाब

Edited By Updated: 15 May, 2025 05:22 AM

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बीते हफ्ते भारत-पाकिस्तान के बीच 4 दिन छिटपुट लड़ाई चली। इस दौरान जहां भारत ने अपने पड़ोसी के साथ संबंध की नई इबारत लिख दी, तो वहीं चीन का तिलिस्म फूट गया और अमरीका की दोहरी नीति फिर बेनकाब हो गई। इस बीच देश का एक हिस्सा इस बात से नाराज है कि युद्ध...

बीते हफ्ते भारत-पाकिस्तान के बीच 4 दिन छिटपुट लड़ाई चली। इस दौरान जहां भारत ने अपने पड़ोसी के साथ संबंध की नई इबारत लिख दी, तो वहीं चीन का तिलिस्म फूट गया और अमरीका की दोहरी नीति फिर बेनकाब हो गई। इस बीच देश का एक हिस्सा इस बात से नाराज है कि युद्ध में हावी भारत ने पाकिस्तान के साथ संघर्ष विराम क्यों स्वीकार किया। ‘ऑप्रेशन सिंदूर’ की कामयाबी को समझने का सही तरीका यह है कि भारत ने इस सैन्य अभियान में क्या मकसद तय किए थे और उन्हें कितना अच्छे से अंजाम दिया।

भारत और पाकिस्तान के संबंध अब पुराने ढर्रे पर नहीं, बल्कि नई शर्तों पर तय होंगे। पाकिस्तान की शह पर होने वाला कोई भी आतंकी हमला अब सीधे युद्ध की घोषणा माना जाएगा  और भारत उसकी जवाबी कार्रवाई बिना देर किए करेगा। 12 मई को प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्र के नाम संबोधन में यह साफ  हुआ। 2008 के मुंबई हमलों में भारत सिर्फ  ‘कड़ी निंदा’ करने तक सिमटा हुआ था लेकिन 2016 और 2019 की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद डंके की चोट पर भारत ने पाकिस्तान के भीतर जाकर जवाब दिया था। मारे गए आतंकियों में मसूद अजहर के रिश्तेदार यूसुफ अजहर, मुदस्सिर अहमद और अब्दुल मलिक सहित कई पुराने जिहादी शामिल थे, जिनका नाम 9-11 और लंदन हमले जैसी अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं से भी जुड़ा रहा था। पाकिस्तान का आतंकियों के साथ गठजोड़ खुलकर सामने आ गया। मारे गए जिहादियों को पाकिस्तानी झंडे में लपेटा गया, नमाजे-जनाजा में पाकिस्तानी फौज, पुलिस और नेता शामिल हुए। अमरीका द्वारा घोषित आतंकवादी हाफिज अब्दुल रऊफ  के साथ पाकिस्तान के शीर्ष सैन्य अधिकारी जनाजे का नेतृत्व कर रहे थे, जो ओसामा बिन लादेन प्रकरण के बाद फिर साबित करता है कि पाकिस्तान में आतंकवाद राजकीय नीति का हिस्सा है। 

‘ऑप्रेशन सिंदूर’ ने भारत की सैन्य ताकत को वैश्विक मंच पर सामने रख दिया। 4 दिन चले इस अभियान में भारत ने फ्रांसीसी,रूसी और इसराईली हथियारों के साथ स्वदेशी सैन्य उपकरणों,राडार और वायुरक्षा प्रणाली ‘ए.डी.एस.’ का प्रभावी प्रदर्शन किया। पाकिस्तान का चीनी ए.डी.एस. न केवल पूरी तरह ध्वस्त हो गया, बल्कि बाजार में उपलब्ध चीनी माल की तरह खोखला और बेजान निकला। भारत ने सटीक वार करते हुए यह दिखा दिया कि वह बिना आम नागरिकों को नुकसान पहुंचाए, अपने किसी भी लक्ष्य को भेद सकता है। अब भारत केवल एक क्षेत्रीय ताकत नहीं, बल्कि वैश्विक रक्षा शक्ति बनता जा रहा है। फिर भी देश का एक हिस्सा इस बात से असंतुष्ट है कि पाकिस्तान को पूरी तरह क्यों नहीं कुचला गया। इस निराशा के पीछे 2 प्रमुख वजहें रहीं। पहली कि पाकिस्तान 4 पारंपरिक युद्ध हारने के बाद 1980-90 के दशक से जिहादियों के सहारे भारत को हजार घाव देने की रणनीति पर काम कर रहा है। इसलिए देश का एक वर्ग चाहता है कि पाकिस्तान का हमेशा के लिए अंत कर दिया जाए और उसे विश्वास है कि यह कार्य केवल प्रधानमंत्री मोदी ही कर सकते हैं।

दूसरा, कुछ टी.वी. चैनलों की गैर-जिम्मेदाराना और जरूरत से ज्यादा आक्रामक रिपोॄटग। जब कुछ न्यूज एंकरों ने अपनी भावनाओं को ही समाचार बना दिया जैसे इस्लामाबाद पर कब्जा या  लाहौर तबाह तो लोगों की अपेक्षाएं भी उतनी ही ऊंची हो गईं। संक्षेप में कहें तो,मीडिया के एक हिस्से ने ‘ऑप्रेशन सिंदूर’ के वास्तविक उद्देश्य को ही पीछे छोड़ दिया। इस पूरे घटनाक्रम में अमरीका का दोहरा चेहरा फिर बेनकाब हो गया। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने यह हास्यास्पद दावा किया कि ‘भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम केवल अमरीका से व्यापार के कारण हुआ’। क्या भारत-पाक के रिश्ते किसी व्यापारिक सौदे से तय होते हैं? बिल्कुल नहीं। 

ट्रम्प भी जानते हैं कि दोनों देशों के बीच का टकराव सांस्कृतिक और सभ्यतागत मूल्यों पर आधारित है। इसका प्रमाण हाल के पाकिस्तानी बयानों से भी मिलता है। 16 अप्रैल को पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर ने मुसलमानों को हर दृष्टि से हिंदुओं से श्रेष्ठ बताया था तो 11 मई को उनकी सेना के प्रवक्ता लैफ्टिनैंट जनरल अहमद शरीफ  ने इस्लाम को पाकिस्तानी सैन्य प्रशिक्षण का अभिन्न हिस्सा बताया है। दरअसल, पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह जनरल जिया-उल-हक ने अपनी सेना का आदर्श वाक्य बदलकर ‘ईमान-तकवा- जिहाद फी सबीलिल्लाह ’ कर दिया था जो पाकिस्तान की कट्टर इस्लामी विचारधारा को दर्शाता है, जिसे इस्लामी आक्रांताओं की तरह ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है। 

अमरीका और उसके समॢथत दंतहीन संस्थाओं (संयुक्त राष्ट्र और आई.एम.एफ.) सहित  ने अपने स्वार्थ में हमेशा दोहरा रवैया अपनाया। 1971 में पाकिस्तान द्वारा हिंदू, बौद्ध नरसंहार के बावजूद अमरीका ने उसका साथ दिया, पर भारत की विजय नहीं रोक सका। 1979-89 में अफगानिस्तान में सोवियत विरोध के नाम पर जिहाद को प्रोत्साहन देकर तालिबान को जन्म दिया गया। 2001 में 9/11 प्रकरण के बाद उसी तालिबान पर हमला किया गया और 2021 में उसी से समझौता कर पीछे हट गया। अमरीका ने पाकिस्तान के हर सैन्य तानाशाह का समर्थन किया है। वास्तव में अमरीका के ‘गुड तालिबान-बैड तालिबान’ जैसे मानदंडों ने दुनिया को इस्लामी आतंकवाद और मजहबी कट्टरता के गहरे संकट में झोंक दिया है।-बलबीर पुंज 
 

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