अपने विरोधियों के विरुद्ध सत्ता तंत्र का दुरुपयोग असंवैधानिक

Edited By Updated: 20 Mar, 2023 06:42 AM

unconstitutional abuse of power against one s opponents

विपक्षी दलों के नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों में केंद्रीय जांच एजैंसियों की सक्रियता को लोकतंत्र पर हमले के रूप में देखे-दिखाए जाने से पूरी बहस जिस तरह लोकतंत्र बनाम भ्रष्टाचार में बदल रही है, वह शुभ संकेत नहीं है।

विपक्षी दलों के नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों में केंद्रीय जांच एजैंसियों की सक्रियता को लोकतंत्र पर हमले के रूप में देखे-दिखाए जाने से पूरी बहस जिस तरह लोकतंत्र बनाम भ्रष्टाचार में बदल रही है, वह शुभ संकेत नहीं है। लोकतंत्र और भ्रष्टाचार, दोनों ही महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, लेकिन इन्हें एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने से मूल मुद्दे से ही भटकाव का खतरा बढ़ जाता है।

खासकर दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की शराब नीति घोटाले में गिरफ्तारी के बाद यह बहस और इस पर विपक्षी गोलबंदी तेज हुई है कि विपक्ष पर अंकुश लगाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार सी.बी.आई., ई.डी. जैसी केंद्रीय जांच एजैंसियों का दुरुपयोग कर रही है। शायद इसलिए भी कि दिल्ली में सत्तारूढ़ ‘आप’ सिसोदिया को शिक्षा सुधारों के नायक के रूप में पेश करती रही है।

राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप और जवाब में उन्हें राजनीति प्रेरित बताए जाने की परंपरा पुरानी है। सच्चाई किसी निष्पक्ष-विश्वसनीय जांच और त्वरित न्यायिक प्रक्रिया से ही सामने आ सकती है, जो प्रभावशाली राजनेताओं के संदर्भ में अक्सर नजर आती नहीं-और इंतजार करने की उन्हें आदत नहीं। इससे तरह-तरह के आरोपों को तो बल मिलता ही है, राजनेताओं की छवि धूमिल होती है और व्यवस्था में जनता का विश्वास डगमगाता है।

बेशक महीनों से जेल में बंद सत्येंद्र जैन भी उस आप सरकार में मंत्री रहे हैं, जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे के चॢचत आंदोलन के बाद उपजी। पर सिसोदिया तो उस आंदोलन के अग्रणी रणनीतिकार केजरीवाल के प्रमुख सहयोगी हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनेक आंदोलन कर चुके अन्ना ने कभी अपने दामन पर राजनीति का दाग नहीं लगने दिया, पर उनके शिष्यों ने पहला मौका मिलते ही आम आदमी पार्टी नाम से नया दल बना लिया।

भ्रष्टाचार के शोर और परम्परागत राजनीति से मोहभंग के दौर में दिल्लीवासियों ने उसे सत्ता भी सौंप दी। दूसरे प्रयास में आप ने पंजाब में सरकार बना ली तो गुजरात में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। यह हमारी राजनीति का दोहरा चरित्र ही है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए जिस जन लोकपाल की मांग को लेकर 2011 में अन्ना हजारे ने विश्व चॢचत आंदोलन किया था, जिसके प्रभाव-परिणामस्वरूप केंद्र और दिल्ली में सत्ता परिवर्तन भी हुआ-उसका आज तक कुछ अता-पता नहीं।

यह भी कि अन्ना आंदोलन और उसके बाद तक भी केजरीवाल सूची जारी कर जिन नेताओं को भ्रष्ट बताते रहे, उनमें से कुछ से माफी मांगने में उन्हें संकोच नहीं हुआ तो अब बाकी से मित्रता करने में भी कोई नैतिक संकट नहीं। इसके बावजूद यह तो सच है कि ‘आप’ का विस्तार, खासकर केजरीवाल की महत्वाकांक्षाएं  कांग्रेस ही नहीं, भाजपा के लिए भी चुनौतियां बन रही हैं। शायद इसलिए भी दिल्ली में आप सरकार से टकराव और उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों में कसते शिकंजे को राजनीति प्रेरित देखा-दिखाया जाता है।

इसी क्रम में सरकारी एजैंसियों की कार्रवाई को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया जा रहा है, जिसकी परिणति पीड़ित राजनीतिक दलों-नेताओं की एकजुटता की कवायद के रूप में भी होती है। 
सिसोदिया की गिरफ्तारी पर पहले तो 9 प्रमुख विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इसे तानशाहीपूर्ण बताया और फिर विरोध में संसद से ई.डी. दफ्तर तक मार्च निकाला। बेशक विपक्ष को प्रतिक्रिया का अधिकार है, पर ऐसे मामलों को लोकतंत्र बनाम भ्रष्टाचार की बहस में तबदील करने से सिर्फ राजनीति का भला होता है, देश-समाज का नहीं।

कानूनी लड़ाई कानून की अदालत में ही लड़ी जानी चाहिए, संसद में या सड़क पर नहीं। मद्य निषेध की तमन्ना रखने वाले अन्ना के शिष्यों की सरकार ने शराब माफिया की मददगार नीति बनाई, तो वह उसकी जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकती। यह कानूनी बहस का विषय है कि वापस ले ली गई नीति की जांच कितनी जायज है? यह भी कि जांच जायज है तो उस नीति को मंजूरी देने वाले उप राज्यपाल जांच के दायरे से बाहर कैसे रह सकते हैं? अगर सिसोदिया के विरुद्ध सी.बी.आई.-ई.डी. की कार्रवाई राजनीति प्रेरित है तो न्यायिक प्रक्रिया में नहीं ठहर पाएगी।

हां, तब तक सिसोदिया समेत आप को राजनीतिक नुक्सान अवश्य हो चुका होगा। हमारी न्याय-व्यवस्था विलंबित न्याय को न्याय से इन्कार के रूप में देखती है, पर त्वरित न्याय की दिशा में कारगर प्रयास अभी तक नजर नहीं आए। फिर भी राजनेताओं के अपने लिए अलग मानदंड या प्रक्रिया की अपेक्षा संविधान या लोकतंत्र के अनुरूप तो हरगिज नहीं।

यह शोध का विषय है कि सत्ता पक्ष के नेताओं के पास भ्रष्टाचार के अवसर सहज सुलभ होते हैं, पर सरकारी एजैंसियों की नजर विपक्षी नेताओं पर ही जाकर अटकती है? नेता पाला बदल ले तो जांच- कार्रवाई क्यों मंद पड़ जाती है? कोई दावा कर सकता है कि जिन राजनेताओं के विरुद्ध जांच-कार्रवाई हो रही है, वे सभी निर्दोष हैं? अपने विरोधियों के विरुद्ध सत्ता तंत्र का किसी भी रूप में दुरुपयोग असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक है, पर यह सिद्धांत सदैव और सभी पर समान रूप से लागू होना चाहिए। -राज कुमार सिंह

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