Bhagavad Gita Gyan : कब जरूरी हो जाता है युद्ध ? श्रीकृष्ण की 4 सीख से समझें न्याय युद्ध

Edited By Updated: 27 Dec, 2025 02:38 PM

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Bhagavad Gita Gyan :  श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह जीवन के द्वंद्वों के बीच सही निर्णय लेने की एक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शिका है। कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में जब अर्जुन अपनों के विरुद्ध शस्त्र उठाने से...

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Bhagavad Gita Gyan :  श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह जीवन के द्वंद्वों के बीच सही निर्णय लेने की एक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शिका है। कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में जब अर्जुन अपनों के विरुद्ध शस्त्र उठाने से हिचकिचा रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें 'धर्मयुद्ध' का सिद्धांत समझाया अक्सर लोग गीता के संदेश को केवल शांति से जोड़कर देखते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि युद्ध करना कब और क्यों जरूरी हो जाता है। श्रीकृष्ण की इन 4 प्रमुख बातों के माध्यम से समझते हैं कि न्याय के लिए युद्ध करना 'हिंसा' नहीं बल्कि 'कर्तव्य' है।

Bhagavad Gita Gyan

जब शांति के सभी विकल्प समाप्त हो जाएं 
श्रीकृष्ण ने कभी भी युद्ध का सीधा आह्वान नहीं किया। उन्होंने शांतिदूत बनकर संधि के हर संभव प्रयास किए। उन्होंने दुर्योधन से केवल पांच गांव मांगे थे ताकि युद्ध टल सके। श्रीकृष्ण समझाते हैं कि युद्ध को कभी भी पहली पसंद नहीं बनाना चाहिए। लेकिन जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए किए गए सभी शांतिपूर्ण प्रयास विफल हो जाएं, तब युद्ध करना अनिवार्य हो जाता है। कायरता के कारण शांति बनाए रखना धर्म नहीं है। यदि आप अन्याय सहते हैं, तो आप भी उस पाप के भागीदार बन जाते हैं।

 धर्म की रक्षा और समाज का कल्याण
युद्ध तब जरूरी है जब उसका उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ या सत्ता की भूख न होकर, 'धर्म'  की स्थापना हो।  श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि आततायी समाज की सुरक्षा और नैतिकता के लिए खतरा बन जाए, तो उसे दंड देना समाज हित में है। अर्जुन को शस्त्र उठाने के लिए इसलिए कहा गया क्योंकि धृतराष्ट्र और उनके पुत्र अधर्म के मार्ग पर चलकर समाज की नींव कमजोर कर रहे थे।  यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-आज सज्जनों की रक्षा के लिए युद्ध अपरिहार्य हो जाता है।

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कर्तव्य से भागना अधर्म है
अर्जुन का युद्ध न करना उनकी 'अहिंसा' नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य से पलायन था। एक क्षत्रिय होने के नाते न्याय के लिए लड़ना उनका 'स्वधर्म' था। अर्जुन अपने परिजनों के प्रति मोह के कारण कांप रहे थे। श्रीकृष्ण ने समझाया कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है। यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्यों को निजी संबंधों के कारण छोड़ता है, तो वह सबसे बड़ा पापी है।  यदि कोई सैनिक सीमा पर युद्ध करने से मना कर दे, तो वह अहिंसा नहीं, बल्कि देश के प्रति गद्दारी होगी। इसी तरह, जीवन के युद्ध में अपने उत्तरदायित्वों से भागना अधर्म है।

फल की चिंता किए बिना न्याय की स्थापना
युद्ध करना तब सही है जब आप उसे बिना किसी द्वेष, घृणा या अहंकार के करें। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि युद्ध एक 'सेवा' के रूप में करो, न कि 'विजेता' बनने की लालसा में। यदि आप शत्रु से घृणा करके लड़ते हैं, तो वह हिंसा है। लेकिन यदि आप केवल न्याय की रक्षा के लिए लड़ते हैं, तो वह कर्मयोग है। श्रीकृष्ण की चौथी महत्वपूर्ण बात यह थी कि युद्ध के परिणाम को ईश्वर पर छोड़ दो और केवल उस प्रक्रिया पर ध्यान दो जो सही है। यह विचार युद्ध को प्रतिशोध से ऊपर उठाकर कर्तव्य के स्तर पर ले जाता है।

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