Great History of Panj Pyare: आप भी जानें कौन थे गुरु गोबिंद सिंह जी के पांच प्यारे, पढ़ें कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 07 Dec, 2023 07:27 AM

great history of panj pyare

सम्वत् 1756 की बैसाखी वाले दिन दशम पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने श्री आनंदपुर साहिब में एक अद्भुत कौतुक रचा। तत्कालीन सारा सिख समाज, जिसकी तादाद अस्सी हजार से भी ऊपर थी, वैसाखी के

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Great History of Panj Pyare: सम्वत् 1756 की बैसाखी वाले दिन दशम पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने श्री आनंदपुर साहिब में एक अद्भुत कौतुक रचा। तत्कालीन सारा सिख समाज, जिसकी तादाद अस्सी हजार से भी ऊपर थी, वैसाखी के पर्व पर गुरु नगरी में एकत्र हुआ था। दशम पातशाह ने हुक्मनामे भेज कर सारे सिख समुदाय को श्री आनंदपुर साहिब में एकत्र होने का आमंत्रण दिया था। दीवान सजे हुए थे। तभी दशमेश पिता ने उठकर सिखों को संबोधित करते हुए कहा कि धर्म और मानवता की रक्षा के लिए मुझे पांच शीश चाहिएं। नंगी कृपाण लहराते हुए रौद्र रूप में गुरु जी ने ललकारा कि कौन मुझे शीश देने के लिए तैयार है ? विशाल भीड़ में सन्नाटा पसर गया। लोग घबरा गए। गुरु जी ने पुन: गरजते हुए शीश की मांग की। आखिर सहमे हुए उस जनसमुदाय में से एक सिख ने साहस किया और उठ कर बोला कि मैं शीश देने के लिए प्रस्तुत हूं। गुरु के चरणों में शीश अर्पित करने वाले यह सबसे पहले सिख थे भाई दया राम।

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इसके बाद गुरु जी के आह्वान पर एक-एक करके चार सिख और उठे तथा गुरु चरणों में शीश अर्पित करने के लिए तत्पर हुए। ये चार सिख थे भाई धरम दास, भाई हिम्मत राय, भाई मुहकम चंद, भाई साहिब चंद। दशमेश पिता ने इन पांचों सिखों को खंडे-बाटे का अमृत छकाया और सिंह सजा दिया। अमृत छक कर ये बन गए भाई दया सिंह, भाई धरम सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मुहकम सिंह और भाई साहिब सिंह। गुरु जी ने इन्हें पांच प्यारे कह कर संबोधित किया। फिर दशमेश पिता ने स्वयं इन ‘पांच प्यारों’ को गुरु रूप मानते हुए इनसे अमृत छका और स्वयं भी गोबिंद राय से गोबिंद सिंह बन गए।

Bhai Daya Singh भाई दया सिंह
भाई दया सिंह का जन्म सन् 1661 ईस्वी में लाहौर के निकट डल्ला गांव में पिता श्री सुद्धा खत्री और माता दिआली के घर हुआ। पिता सुद्धा नवम पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी के समर्पित श्रद्धालु थे। भाई दया सिंह का बचपन अपने गांव में ही बीता जब वह सोलह बरस के हुए तो वह भी श्री आनंदपुर साहिब आ गए और गुरु घर की सेवा में जुट गए।

भाई दया सिंह हर समय श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की सेवा में ही रहते। भाई साहिब हर मुहिम में गुरु जी के साथ रहे और हर युद्ध में बड़ी बहादुरी से लड़े, चाहे वह भंगाणी का युद्ध हो, नादौन का युद्ध हो या फिर हुसैनी का युद्ध। यह भाई साहिब का समर्पण ही था जिसने 1699 ई. की वैसाखी वाले दिन सबसे पहले गुरुचरणों में इन्हें शीश अर्ति करने के लिए प्रेरित किया। सन् 1704 ईस्वी में श्री आनंदपुर साहिब की घेराबंदी के दौरान भी आप दशमेश पिता के साथ ही थे। दिसम्बर 1804 ई. में जब गुरु जी ने श्री आनंदपुर साहिब को छोड़ने का निश्चय किया, तब भाई दया सिंह ने गुरु जी के साथ ही रहने का फैसला किया।

सन् 1805 ईस्वी में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब की मानवता विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए औरंगजेब को फारसी में एक लम्बा खत लिखा। यह खत लौहगढ़ (दीना) नामक स्थान पर लिखा गया और इतिहास में ‘जफरनामा’ नाम से प्रसिद्ध है।
भाई दया सिंह ही वह बहादुर सिख थे, जो जफरनामा लेकर दक्षिण गए और औरंगजेब को यह खत देकर आए। इसके बाद भी भाई साहिब गुरु जी के पास ही रहे और अपने अंतिम समय तक गुरु जी की सेवा करते रहे। सन् 1808 ईस्वी में 47 वर्ष की आयु में गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘अबिचल नगर साहिब नांदेड़’ में भाई दया सिंह अकाल चलाणा कर गए।

Bhai Dharam Singh भाई धर्म सिंह
भाई धर्म सिंह का जन्म सन् 1669 ईस्वी में मेरठ क्षेत्र के हस्तिनापुर गांव में हुआ। इनके पिता का नाम श्री संत राम और माता का नाम माई साभो या माई जस्सी था। सिख इतिहास के जानकार स्वर्गीय प्रो. करतार सिंह भाई साहिब का जन्मस्थान दिल्ली मानते थे। यह निश्चित है कि भाई धरम सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना दोआबा के रहने वाले थे। भाई धरम सिंह का बचपन अपने गांव में ही बीता। मात्र 12 वर्ष की आयु में वह दशमेश पिता की शरण में चले गए। इसके बाद भाई साहिब जीवन भर दशमेश पिता की सेवा में रहे।

दशमेश पिता की सेवा में रहते हुए भाई साहिब ने युद्ध कला का अभ्यास किया और उच्च कोटि के योद्धा के रूप में उभरे। भाई साहिब ने दशमेश पिता के नेतृत्व में लड़े गए सारे युद्धों में हिस्सा लिया और हर बार अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया। सन् 1704 के श्री आनंदपुर साहिब के युद्ध में भी भाई साहिब ने बड़ी बहादुरी दिखाई। फिर चमकौर का युद्ध लड़ा, खिदराणे की ढाब यानी श्री मुक्तसर साहिब की जंग की और तलवंडी साबो होते हुए गुरु जी के साथ ही दक्षिण में नांदेड़ चले गए। नांदेड़ में दशमेश पिता के ज्योति जोत समाने के कुछ ही समय बाद भाई धर्म सिंह अकाल चलाणा कर गए।

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Bhai Himmat Singh भाई हिम्मत सिंह
भाई हिम्मत सिंह का जन्म जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) में सन् 1661 ईस्वी में हुआ। प्रो. करतार सिंह के अनुसार वह द्वारिका के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम श्री गुलजारी और माता का नाम माई धन्नो था। भाई साहिब लम्बे समय से दशमेश पिता की सेवा में थे। सतत् युद्ध कला के अभ्यास ने इन्हें एक विकट योद्धा बना दिया। भाई साहिब ने भी दशमेश पिता के नेतृत्व में सारे युद्ध बड़ी वीरता से लड़े।
भाई साहिब ने दशमेश पिता के साथ ही दिसम्बर 1704 ई. में श्री आनंदपुर साहिब छोड़ा और चमकौर साहिब पहुंचे। यहां भाई बुधी चंद की हवेली में सिर्फ चालीस सिंहों के साथ लाखों के मुगल लश्कर के विरुद्ध जंग लड़ी।

यह युद्ध बड़ा अद्भुत था। सिख पांच-पांच के जत्थे के रूप में बाहर निकलते और शत्रु पर टूट पड़ते। अनगिनत शत्रुओं को मौत के घाट उतारते-उतारते शहीद हो जाते। सारा दिन यह युद्ध चला। दस लाख का लश्कर चालीस सिंहों को हराकर गढ़ी पर कब्जा नहीं कर सका। भाई साहब ने बेमिसाल बहादुरी का परिचय देते हुए अन्य सिंहों के साथ शहीदी प्राप्त की।

Bhai Muhkam Singh भाई मुहकम सिंह
भाई मुहकम सिंह का जन्म सन् 1663 ईस्वी में द्वारिका गुजरात में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री तीरथ चंद था। वह सन् 1685 ईस्वी में श्री आनंदपुर साहिब आए और फिर यहीं के होकर रह गए। भाई साहिब निरंतर सेवा कार्यों में जुटे रहते। युद्ध कला इन्हें विशेष रूप से प्रिय थी, इसलिए वह एक महान योद्धा के रूप में उभरे। दशमेश पिता के नेतृत्व में जितनी भी लड़ाइयां लड़ी गईं, उन सबमें भाई मोहकम सिंह ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अपनी बहादुरी के कारनामे दिखाए।

श्री आनंदपुर साहिब छोड़ते समय आप दशमेश पिता के साथ थे। चमकौर साहिब के युद्ध में भाई साहिब ने अद्भुत वीरता का परिचय दिया। गुरु पिता की आज्ञा से जब बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह जी पांच सिंहों के साथ युद्ध भूमि में निकले तो भाई साहिब भी साथ थे। अनगिनत शत्रुओं को मौत के घाट उतारते-उतारते बाबा अजीत सिंह जी के साथ भाई मुहकम सिंह भी शहादत प्राप्त कर गए।

Bhai Sahib Singh भाई साहिब सिंह
भाई साहिब सिंह कर्नाटक के नगर बिदर के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम श्री चमन राम और माता का नाम माई बिशन देई था। यह परिवार आरंभ से ही गुरु घर का श्रद्धालु था।भाई साहिब शुरू से ही कुशल योद्धा और बहादुर जत्थेदार थे। भंगाणी के युद्ध में भाई साहिब ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया था।

इसके अलावा उन्होंने दशमेश पिता के नेतृत्व में सभी युद्धों में हिस्सा लिया और अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया। चमकौर साहिब के युद्ध में दूसरे साहिबजादे बाबा जुझार सिंह जी के नेतृत्व में युद्ध करते हुए भाई हिम्मत सिंह के साथ-साथ भाई जी ने भी शहादत प्राप्त की।

(साभार-गुरमत ज्ञान)

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