आइए जानें, कैसी थी भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 16 Jul, 2019 11:42 AM

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भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य की परम्परा अति प्राचीन है। प्राचीन काल से ही गुरु भक्ति की महान मर्यादा रही है। गुरु अपना सम्पूर्ण ज्ञान शिष्य को सौंप देते हैं और शिष्य को भूत, वर्तमान व भविष्य से परिचय करवाते हैं।

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भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य की परम्परा अति प्राचीन है। प्राचीन काल से ही गुरु भक्ति की महान मर्यादा रही है। गुरु अपना सम्पूर्ण ज्ञान शिष्य को सौंप देते हैं और शिष्य को भूत, वर्तमान व भविष्य से परिचय करवाते हैं। भारत में सदा ही सद्गुरु की महिमा गाई जाती रही है। गीता में कहा गया है कि जीवन को सुंदर बनाना, निष्काम और निर्दोष करना ही सबसे बड़ी विद्या है। इस विद्या को सिखाने वाला ही सद्गुरु कहलाता है। स्वामी विवेकानंद जी ने भी कहा है कि सद्गुरु वही है जिसे गुरु परम्परा से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हुई हो। वह शिष्य के पापों को स्वयं अपने ऊपर ले लेता है।

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गुरु केवल उसे नहीं कहते जो शिक्षक या आचार्य हो, जो हमें ज्ञान के नंदनकानन में पहुंचा दे, वही वास्तविक गुरु हैं। विद्यालय में तो प्रश्र पूछने पर जिज्ञासा का समाधान होता है किंतु गुरु तो बिन कहे, सुने, शिष्य के हृदय के भीतर झांक लेता है। गीता के इन  वचनों से गुरु-शिष्य संबंधों की स्थापना के विषय में जाना जा सकता है : तद्विद्विप्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

यह ज्ञान प्रणाम करके, बार-बार पूछ करके व सेवा द्वारा प्राप्त करो। प्रणाम और सेवा अर्थात विनम्रता। यदि अभिमान से भर कर गुरु के पास जाओगे तो दुर्योधन की भांति हार जाओगे। अर्जुन की भांति धनुर्धारी बनना हो तो गुरु के एक-एक शब्द का अक्षरश: पालन करना होगा, अपने ध्येय पर दृष्टि साधनी होगी।

प्राचीन काल की गुरु-शिष्य परम्परा में महान वैभवशाली राजाओं के पुत्र भी अन्य छात्रों की भांति गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करते थे। उन्हें धनवान पिता की संतान होने के नाते कोई भी अतिरिक्त सुविधा नहीं दी जाती थी। सभी ब्रह्मचारी नियमपूर्वक गुरुकुल में रहते थे। स्मृतिकार मनु लिखते हैं-
दूरादात्य सनिध सन्निदध्याद्विहायसि सायंप्रातरच जुहुयात्ताभिरग्निमर्तमन्द्रत : मनुस्मृति-2/186

शिष्यगण नित्यप्रति दूर से समिधा लाकर सूने स्थान पर रखें। प्रात:काल व संध्या समय उन लकडिय़ों से आलस्य रहित होकर हवन करें।

शिष्य के लिए निर्देश थे कि वह मधु, मांस, सुगंध माला, रस, स्त्री, सहवास, सभी आसव सिरका और प्राणियों की हिंसा त्याग देगा। वह अपने गुरु से किस प्रकार व्यवहार करेगा, इस विषय में कहा गया- शरीर चैव वाचं च बुद्धीन्द्रियमनांसि च। नियम्य. प्राञजलिस्तिेष्ठद्धीक्षमानो गुरोर्मुखम।।  मनुस्मृति-2/192

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शरीर, वचन, बुद्धि, इंद्रिय व मन सबको भली प्रकार रोक कर अंजलिबद्ध हो गुरु के मुख की ओर देखता हुआ शांतिपूर्वक खड़ा रहे। गुरु के जागने से पहले उठना, उनके सोने के बाद शयन करना श्रेष्ठ शिष्य का कर्त्तव्य था। महाभारत के गुरु द्रोणाचार्य एवं एकलव्य के प्रसंग से तो आप भी परिचित ही होंगे। एकलव्य ने गुरु के आदेश पर एक भी क्षण गंवाए बिना, अपने हाथ का अंगूठा दक्षिणा स्वरूप दे दिया था। 

विश्वरूप दर्शन योग अध्याय में अर्जुन विश्व रूप दर्शन के पश्चात कृष्ण जी से कहते हैं- मैं आप (स्तुति योग्य ईश्वर) के चरणों में सिर झुका कर प्रणाम करता हूं और आप से प्रार्थना करता हूं कि हे देव! जिस प्रकार पिता पुत्र के, मित्र मित्र के, प्रेमी प्रियतमा के व्यवहार को सहन करता है वैसे ही आप मेरे व्यवहार को सहन करें।

गुरु में असीम श्रद्धा का भाव उत्पन्न होने के बाद ही शिष्य का विस्तार संभव हो जाता है। स्वयं को गुरु से श्रेष्ठ  मानने वाले तथा उनका निरादर करने वाले शिष्य पग-पग की ठोकरें खाते हैं।

सद्गुरु मनुष्य को एक नई दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे हमें घटनाओं को उचित परिप्रेक्ष्य में देखना आ जाए। चरनदास गुरु किरपा कीन्ही। उलट गई मेरी नयन पुतरिया।।

वे हमारे अंत:करण में कर्तव्य का अहंकार नष्ट कर देते हैं। वे हमें ऐसा उपाय बताते हैं, जिसके माध्यम से हम अपने इष्ट को प्राप्त कर सकें। ऋषि वेदव्यास के पुत्र शुकदेव ने किसी को भी गुरु धारण नहीं किया था अत: उन्हें विष्णुपुरी में प्रवेश की आज्ञा नहीं मिली। पिता की आज्ञा से वह राजा जनक को अपना गुरु बनाने के लिए चल दिए किंतु मन ही मन संशय भी था। वह सारे रास्ते सोचते रहे कि कहां जनक, कहां मैं, वह भोगी, मैं योगी, वह राजा, मैं ऋषि भला उसका मेरा कैसा मेल? वह गृहस्थ, मैं त्यागी वह मेरे गुरु कैसे बन सकते हैं।

गुरु के प्रति अश्रद्धा रखने वाले शिष्य का कल्याण नहीं होता। वह जनक जी के पास पहुंचे तो उन्हें द्वार पर ही प्रतीक्षा करने को कहा गया। कुछ दिन बाद राजा जनक ने उन्हें महल में बुलवाया। वह अपने शिष्य के मन का मैल धोना चाहते थे। शुकदेव ने देखा कि महाराज जनक का एक पांव अग्रिकुंड में धरा है तथा दूसरा दासियां दबा रही हैं तभी महल में आग लगने की सूचना मिली। जनक ने कहा हरि इच्छा।

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द्वारपाल ने कहा कि महाराज आग तो कक्ष तक आ पहुंची। राजा जनक शांत भाव से बैठे रहे। शुकदेव ने सोचा बुद्धिहीन राजा अपने वैभव और संपदा को बचाने का प्रयास तक नहीं कर रहा। मैं तो अपनी जान बचाऊं। ज्यों ही शुकदेव भागने लगे चारों ओर लगी आग शांत हो गई। राजा जनक बोले- तुम मुझे भोगी कहते हो। मेरा तो सब कुछ स्वाहा हो गया। मैंने परवाह नहीं की किंतु तुमसे इस झोले कमंडल का मोह तक नहीं छोड़ा गया। अब बता त्यागी कौन है?

शुकदेव का मोह भंग हुआ। गुरु के कौतुक ने ज्ञान-चक्षु खोल दिए। शुकदेव गुरु से दीक्षा लेकर घर पहुंचे तो पिता ने पूछा।

गुरु कैसे हैं? क्या सूर्य के समान तेजस्वी हैं?

नहीं, पिता श्री। उनमें तो आग है।

तो क्या चंद्रमा सी कांति है?

न, चंद्रमा में भी दाग है।

तो गुरु दिखने में कैसे हैं?

वह किसी के जैसे नहीं है। गुरु तो केवल गुरु हैं। उनके समान कोई नहीं। पिता जान गए कि गुरु ने शिष्य के अहंकार का पर्दा गिरा दिया है।

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