Edited By Sarita Thapa,Updated: 06 Sep, 2025 02:00 PM

Inspirational Context: महान दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गए। वहां उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई। वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गए। भरा-पूरा परिवार था उनका।
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Inspirational Context: महान दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गए। वहां उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई। वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गए। भरा-पूरा परिवार था उनका। घर में बहू-बेटे, पौत्र-पौत्रियां सभी थे। सुकरात ने वृद्ध से पूछा, “आपके घर में तो सुख-समृद्धि का वास है। वैसे अब आप करते क्या हैं?”
वृद्ध बोले, “अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता। अच्छा कारोबार है जिसकी सारी जिम्मेदारियां अब बेटों को सौंप दी हैं। घर की व्यवस्था बहुएं संभालती हैं। इसी तरह जीवन सुखपूर्वक चल रहा है। मैंने जीवन के इस मोड़ पर एक ही नीति अपनाई है कि दूसरों से अधिक उम्मीदें मत पालो और जो मिले उसमें हर हाल में संतुष्ट रहो। मैं और मेरी पत्नी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां अपने बेटे-बहुओं को सौंपकर निश्चित हैं। अब वे जो कहते हैं वह मैं कर देता हूं और जो कुछ भी खिलाते हैं, खा लेता हूं। अपने पौत्र-पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूं। मैं बच्चों के किसी कार्य में बाधक नहीं बनता।”

“पर कभी तो आपका मन करता होगा कि वे आपकी बात मानें, या सुनें?”
सुकरात ने पूछा। वृद्ध बोले, “अगर वे मेरे पास सलाह के लिए आते हैं तो मैं अपने अनुभव के हिसाब से उनको दुष्परिणामों के बारे में सचेत कर देता हूं। अब वे मेरी सलाह पर अमल करते हैं या नहीं करते, यह देखना और अपना मन व्यथित करना मेरा काम नहीं है। वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, मेरा यह आग्रह नहीं होता। परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो मैं चिंतित नहीं होता।” बुजुर्ग सज्जन की यह बात सुनकर सुकरात बोले, “इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए, यह आपने भली-भांति समझ लिया है।”
